हिरासत में मौत के मामले की प्राथमिकी में जोड़ी हत्या की धारा, कोर्ट ने सेवानिवृत्त डीजीपी की अग्रिम ज़मानत निरस्त की

LiveLaw News Network

3 Sep 2020 3:45 AM GMT

  • हिरासत में मौत के मामले की प्राथमिकी में जोड़ी हत्या की धारा, कोर्ट ने सेवानिवृत्त डीजीपी की अग्रिम ज़मानत निरस्त की

    मोहाली के एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मंगलवार को 1991 की हिरासत में मौत के एक मामले में राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस.एस.सैनी की अग्रिम जमानत अर्जी निरस्त कर दी, क्योंकि उनके खिलाफ दर्ज प्राथमिकी में पिछले दिनों ही हत्या की धारा भी जोड़ दी गई है। 11 मई को एक अन्य समतुल्य अदालत ने प्रारंभिक एफआईआर में सैनी को अग्रिम जमानत दे दी थी क्योंकि उस समय प्राथमिकी में हत्या की धारा नहीं जोड़ी गई थी।

    एएसजे रजनीश गर्ग ने कहा कि यह दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किया गया मामला है कि शुरू में आवेदक-अभियुक्त के खिलाफ आईपीसी की धारा 364 (हत्या के लिए अपहरण ), 201 (सबूतों को गायब करना, झूठी जानकारी देना), 344 (गलत तरीके से हिरासत में रखना), 330 ( इकबालिया बयान लेने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुंचाना), 219 (लोक सेवक द्वारा ऐसी रिपोर्ट बनाना जिसे वह कानून के विपरीत मानता हो) और 120 बी के तहत उपरोक्त प्राथमिकी दर्ज की गई थी और आवेदक अभियुक्त को उपरोक्त अपराधों में अग्रिम जमानत दी गई थी। यह देखते हुए कि अग्रिम जमानत के लिए यह अर्जी इसलिए दायर की गई है क्योंकि आईपीसी की धारा 302 अपराध की सूची में जोड़ दी गई है। ऐसे में अदालत के लिए यह आवश्यक है कि वह 11 मई को अग्रिम जमानत दिए जाने के बाद जांच एजेंसी द्वारा एकत्र किए गए उन सबूतों को देखें,जिनके आधार पर धारा 302 के तहत किए गए अपराध को जोड़ा गया है।

    न्यायाधीश ने कहा कि पुलिस रिकॉर्ड से पता चलता है कि आवेदक को अग्रिम जमानत देने के बाद, पुलिस ने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत 2 बयान दर्ज किए, दोनों ने कहा कि 13/14 दिसंबर 1991 की रात को मृतक को पुलिस स्टेशन,सेक्टर 17, चंडीगढ में यातना दी गई थी। उसे दी गई यातनाओं के कारण वह दर्द से रो रहा था और उसकी चोटों से खून निकल रहा था। आगे यह भी बताया गया है कि मृतक को आवेदक-अभियुक्त ने खुद भी व उसके निर्देश पर अन्य पुलिस अधिकारियों ने भी प्रताड़ित किया था।

    दो आरोपी एएसआई कुलदीप सिंह और एएसआई जागीर सिंह इस मामले में अप्रूवर बन गए और उनके बयान भी धारा 164 के तहत दर्ज किए गए। एएसआई कुलदीप सिंह ने बताया कि आवेदक-अभियुक्त के निर्देश के तहत मृतक को उसके घर से उठाया गया था और उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। एएसआई जागीर सिंह, जो किसी काम के सिलसिले में संबंधित पुलिस स्टेशन गए थे, ने मृतक को आवेदक-अभियुक्त और उसकी पुलिस टीम द्वारा प्रताड़ित करते हुए देखा था। दोनों ने बताया कि 13 दिसंबर, 1991 के 2/3 दिन बाद उन्हें पता चला कि मृतक को लगी चोटों के कारण उसकी मौत हो गई थी। इसके बाद आवेदक-अभियुक्त ने उन्हें निर्देश दिया था कि वह कादियान पुलिस स्टेशन जाएं और मामले को संभाले। मामले में यह दिखाया जाए कि मृतक पुलिस हिरासत से भाग गया था।

    न्यायाधीश ने आगे उल्लेख किया कि एजेंसी ने कम से कम 44 पुलिस अधिकारियों के बयान भी दर्ज किए हैं जो उस समय पुलिस स्टेशन कादियान में तैनात थे जब मृतक कथित रूप से पुलिस की हिरासत से भाग गया था। पुलिस फाइल पर मृतक की तस्वीर देखने के बाद, सभी ने कहा कि यह वह व्यक्ति नहीं है जिसे चंडीगढ़ पुलिस द्वारा कादियान पुलिस स्टेशन लाया गया था। इसलिए वह मृतक नहीं था, जो पुलिस की गिरफ्त से बचकर भाग गया था।

    न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि,''इसलिए, जांच एजेंसी ने मृतक के अपहरण और हत्या में आरोपी आवेदक की प्रथम दृष्टया संलिप्तता स्थापित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य एकत्र किए हैं। निसंदेह, उक्त गवाहों द्वारा दिए गए बयानों की सत्यता ट्रायल के दौरान प्रति परीक्षण के दौरान निर्धारित की जाएगी। लेकिन इस स्तर पर अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया सबूत है,जिन पर जमानत अर्जी पर निर्णय देते समय विचार किया जाना चाहिए।''

    न्यायाधीश ने कहा कि आरोपी द्वारा मृतक का गैरकानूनी तरीके से अपहरण किया गया व उसे हिरासत में मार दिया गया। जिसके बाद मृतक के पिता, एक आईएएस अधिकारी, न्याय पाने के लिए दर-दर भटकते रहे। लेकिन आरोपियों के प्रभाव और शक्ति के कारण कोई कार्रवाई नहीं की गई। अंततः वर्ष 2015 के अंत में, एक पूर्व पुलिस अधिकारी ने वर्तमान शिकायतकर्ता के भाई को दी गई अमानवीय यातना और आरोपी और उसकी टीम द्वारा विभिन्न व्यक्तियों को दी गई यातनाओं के बारे में खुलासा किया। उसके द्वारा किया गया खुलासा दिसंबर 2015 में राष्ट्रीय पत्रिका 'आउटलुक' में प्रकाशित हुआ था। वहां से उन्हें आरोपी के निर्देश पर पुलिसकर्मियों द्वारा मृतक को दी गई अमानवीय यातना व अवैध गतिविधियों के बारे में पता चला। उनको विश्वास था कि उक्त खुलासे के बाद सरकारी मशीनरी द्वारा कुछ कार्रवाई की जाएगी, लेकिन आरोपियों के प्रभाव के कारण कोई कार्रवाई नहीं की गई। अब अभियुक्त की सेवानिवृत्ति के बाद, उन्होंने फिर से कुछ और जानकारी एकत्रित करने के बाद वर्तमान शिकायत दर्ज कराने का साहस किया।

    इन आरोपों के साथ आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 364, 201, 344, 330, 219 और 120 बी के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी। उपरोक्त अपराधों के संबंध में अग्रिम जमानत के लिए एक आवेदन दायर किया गया था,जिसे 11 मई को एक अन्य अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की अदालत ने स्वीकार कर लिया था। पुलिस ने आगे की जांच की और दो आरोपी एएसआई जागीर सिंह और एएसआई कुलदीप सिंह इस मामले में अप्रूवर यानि सरकारी गवाह बन गए और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत अपने बयान दर्ज कराए।

    जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि आवेदक अभियुक्त के निर्देश के तहत मृतक को अमानवीय यातनाएं दी गईं, जिसके परिणामस्वरूप मृतक की मृत्यु हो गई और वे अपराध को कवर करने के लिए आरोपी के निर्देश के अनुसार कादियान गए थे। कुछ और गवाहों के बयान दर्ज किए गए और अपराध की सूची में आईपीसी की धारा 302 को भी जोड़ दिया गया। इसलिए आरोपी की तरफ से यह अग्रिम जमानत अर्जी दायर की गई।

    जज ने कहा कि,''इसमें कोई संदेह नहीं है कि मामला दर्ज होने में 29 साल की एक अभूतपूर्व देरी हुई है, लेकिन यह पूरे अभियोजन मामले को झूठा साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अदालत इस तथ्य को नहीं नकार सकती है कि आवेदक अभियुक्त को वर्ष 1991 में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक,चंडीगढ़ के पद पर तैनात किया गया था। तब से लेकर वह उच्च पदों पर तैनात रहा है और जून, 2018 में डीजीपी के पद से सेवानिवृत्त हुए थे।''

    यह ध्यान रखने की बात है कि उस अवधि में उसके खिलाफ कोई कार्रवाई करना आसान नहीं था। न्यायाधीश ने इस बात की सराहना की है कि अपनी बुद्धि में विधान ने तीन साल से अधिक के कारावास के साथ दंडनीय अपराधों के लिए कोई सीमा तय नहीं की है। जज ने कहा कि,''इसका मतलब है कि तीन साल से अधिक की सजा वाले अपराध को किसी भी समय प्रकाश में लाया जा सकता है और इस आधार पर एफआईआर को खारिज नहीं किया जा सकता है।''

    एएसजे ने आगे पाया कि आरोपी को अग्रिम जमानत दी गई थी क्योंकि उसके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था और बल्कि मुख्य रूप से संदेह के आधार पर ही प्राथमिकी दर्ज की गई थी। न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि,''यही कारण है कि एफआईआर दर्ज करने में देरी के कारण उन्हें उक्त अदालत ने जमानत दे दी थी। एक बार जब प्रथम दृष्टया रिकॉर्ड पर ऐसे सबूत आ गए हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से घटना में अभियुक्त की संलिप्तता को दर्शा रहे हैं तो उसके बाद प्राथमिकी दर्ज करने में हुई देरी या राजनैतिक प्रतिशोध, यदि कोई हो, जैसा कि आवेदक-अभियुक्त ने आरोप लगाया गया है, मुकदमे की सुनवाई के दौरान तय किया जाएगा और इस समय यह असंगत हैं।''

    आरोपी आवेदक के वकील ने जोरदार तर्क दिया कि पहले भी इसी घटना के संबंध में अभियुक्त के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी और उसेे सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। इसलिए, अब आवेदक अभियुक्त पर फिर से उसी अपराध के लिए मुकदमा चलाने की कोशिश नहीं की जा सकती है।

    जज ने कहा कि

    ''अभियुक्त के खिलाफ पहले दर्ज की गई एफआईआर को उच्चतम न्यायालय ने तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया था क्योंकि हाईकोर्ट द्वारा एफआईआर दर्ज करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया सही नहीं थी। हालांकि, मृतक के पिता व आवेदक को स्वतंत्रता दी गई थी कि अगर कानून के तहत अनुमन्य है तो वह फिर से कार्यवाही कर सकते हैं। शीर्ष अदालत ने योग्यता के आधार पर एफआईआर को खारिज नहीं किया था। अगर शीर्ष अदालत का इरादा इस मामले को खत्म करने का था, तो वह मामले को पूरी तरह समाप्त कर देती और इस तरह की स्वतंत्रता नहीं देती।''

    न्यायाधीश ने कहा कि वर्तमान आवेदन प्राथमिकी में आईपीसी की धारा 302 को जोड़ने के बाद दायर किया गया है और निश्चित रूप से जांच एजेंसी ने कुछ और सबूत एकत्र किए हैं। मामले के तथ्यों व परिस्थितियों को देखते हुए एक समतुल्य अदालत द्वारा पहले आरोपी को अग्रिम जमानत देने संबंध में दी गई दलील का जवाब देते हुए जज ने कहा कि,''एक बार जब अपराध की सूची में नया और गंभीर अपराध शामिल हो जाता है, तो अदालत नई परिस्थितियों के मद्देनजर मामले पर पुनर्विचार कर सकती है।''

    यह माना जाता है कि मृतक के अपहरण और हत्या में अभियुक्त की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संलिप्तता दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर आधिकारिक और प्रथम दृष्टया सबूत हैं। वह हिरासत में था और इसलिए, मृतक की पुलिस हिरासत में मृत्यु हो गई थी। न्यायाधीश ने दोहराया कि पुलिस हिरासत में मौत एक सभ्य समाज में सबसे खराब प्रकार का अपराध है और अदालतों द्वारा ऐसे मामलों को यथार्थवादी तरीके से और संवेदनशीलता के साथ निपटाना चाहिए।

    न्यायाधीश का यह भी विचार था कि आवेदक अभियुक्त को हिरासत में लेकर पूछताछ करने की आवश्यकता है ताकि पीड़ित के शव की खोज की जा सकें। ताकि यह पता चले कि अपराध में कौन से हथियारों का इस्तेमाल किया गया था और उसके शव को कहां फेंका गया। न्यायाधीश ने कहा, ''यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि आवेदक अभियुक्त, एक सेवानिवृत्त डीजीपी है। जिसका अभी भी पुलिस विभाग में काफी प्रभाव होगा क्योंकि विभाग के अधिकांश अधिकारियों ने उसके तहत काम किया है।''

    उपरोक्त टिप्पणियों के मद्देनजर न्यायाधीश ने कहा कि आवेदक अभियुक्त एक जघन्य अपराध का दोषी है और वह अग्रिम जमानत जैसी असाधारण राहत के लायक नहीं है। इसलिए इस मामले में आगे जांच के लिए उसको हिरासत में लेकर पूछताछ करना आवश्यक है।

    आदेश की काॅपी डाउनलोड करें।



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