लिखित बयान में संशोधन की अनुमति दी जा सकती है, भले ही यह बचाव के नए आधारों को जोड़ने के बराबर हो: जेकेएल हाईकोर्ट

Avanish Pathak

20 Dec 2022 11:26 AM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में कहा कि लिखित बयान में संशोधन की अनुमति दी जानी चाहिए, भले उक्त संशोधन बचाव के नए आधारों को जोड़ने, बचाव को प्रतिस्थापित करने या बदलने या बयान में असंगत दलीलों पेश करने के समान हो।

    जस्टिस संजय धर की पीठ ने स्पष्ट किया कि "वादपत्र में संशोधन के लिए दायर आवेदन पर यही सिद्धांत लागू नहीं होगा, क्योंकि उसका एक अलग आधार है। वाद में कार्रवाई का एक नया कारण जोड़ना, बदलना या प्रतिस्थापित करना निश्चित रूप से आपत्तिजनक है"।

    याचिकाकर्ता ने मुंसिफ अदालत के एक आदेश के खिलाफ याचिका दायर की थी, जिसमें संशोधन की मांग संबंधी उसकी याचिका को खारिज कर दिया गया था।

    याचिकाकर्ता की दलील यह थी कि जिस संशोधन की मांग की गई है, वह पक्षकारों के बीच वास्तविक विवाद को तय करने के लिए जरूरी है। याचिकाकर्ता का तर्क था कि न्याय के लक्ष्य को पाने के उद्देश्य से संशोधन की अनुमति दी जानी चाहिए।

    बेंच ने उपलब्ध रिकॉर्ड के अवलोकन के बाद कहा,

    याचिकाकर्ता/वादी ने प्रतिवादी के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया है, जिसमें उसने घोषण की डिक्री की मांग की है कि प्रतिवादी संख्या 1-मोहम्मद इकबाल के पक्ष में मृतक सलाम भट की ओर दी गई एडॉप्टेशन डिक्री को शून्य घोषित किया जाए, जहां तक कि वादी की के अधिकारों का संबंध है....

    घोषणा की एक और डिक्री की मांग की गई थी कि वादी मृतक सलाम भट की जमीन के आधे हिस्से का मालिक है। अंत में एक और डिक्री की मांग की गई थी कि वाद संपत्ति का विभाजन दो बराबर शेयरों में किया जाए।

    रिकॉर्ड से पता चला कि मुकदमे के लंबित रहने के दरमियान याचिकाकर्ता ने याचिका में संशोधन के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसके तहत पर वादी ने खुद को मृतक सलाम भट की भूमि का एकमात्र मालिक होने का दावा किया था।

    प्रतिवादियों ने आवेदन का विरोध किया। निचली अदालत ने आक्षेपित आदेश पारित किया, जिसके जरिए वादी के आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि वादी की ओर से मांगा गया संशोधन उसके समक्ष लंबित मामले के न्यायनिर्णयन के लिए आवश्यक नहीं है।

    जस्टिस धर ने कहा कि आदेश 6 नियम 11 से यह स्पष्ट है कि कार्यवाही के किसी भी चरण में याचिकाओं में संशोधन किया जा सकता है और संशोधन के लिए प्रार्थना की अनुमति देने में न्यायालय को उदार होना चाहिए। हालांकि, पीठ ने वादपत्र और लिखित बयान में संशोधन करने के लिए अपनाए जाने वाले विभिन्न मानदंडों को स्पष्ट किया।

    अंतर को स्पष्ट करते हुए, जस्टिस धर ने कहा कि एक लिखित बयान में संशोधन की अनुमति देते समय, सामान्य सिद्धांत यह है कि संशोधन की अनुमति दी जानी चाहिए, भले ही यह बचाव के नए आधारों को जोड़ने, किसी बचाव को प्रतिस्थापित करने या बदलने या लिखित बयान में असंगत दलीलें लेने के बराबर हो।

    हालांकि, एक वादपत्र के संशोधन के लिए एक आवेदन पर विचार करते समय एक ही सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह एक अलग आधार पर है।

    मौजूदा मामले में प्रचलित कानून को लागू करते हुए बेंच ने पाया कि मूल वाद में, वादी ने प्रतिवादियों के खिलाफ सूट संपत्ति के संबंध में विभाजन के एक डिक्री का दावा किया था, जबकि प्रस्तावित संशोधन के माध्यम से, उसने विभाजन की राहत के प्रतिस्थापन की मांग की है। मृतक सलाम भट द्वारा पीछे छोड़ी गई पूरी संपत्ति के कब्जे का एक डिक्री और इस प्रकार, वादी ने मुकदमे की प्रकृति को बदलने की मांग की।

    पीठ ने कहा कि असंगत दलीलें ली जा सकती हैं और बाद की घटनाओं को भी संशोधन के माध्यम से शामिल करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन तब नहीं जब कार्रवाई का पूरा कारण बदलने वाला हो।

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुकदमेबाजी की बहुलता से बचने के लिए अभिवचनों में संशोधन के लिए एक आवेदन पर विचार करते समय उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वादी को कार्रवाई का पूरा नया कारण स्थापित करने या नए दलीलों को शामिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए, जो मूल वाद की दलीलों से असंगत हैं।

    पीठ ने याचिका को किसी भी योग्यता से रहित पाया और उसे खारिज कर दिया।

    केस टाइटल: अब्दुल अजीज भट बनाम मोहम्मद इकबाल भट व अन्य।

    साइटेशन: 2022 लाइवलॉ (जेकेएल) 256

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