वैवाहिक मामले में लगाए गए आरोपों के आधार पर बन सकता है आपराधिक मानहानि का मामला : कर्नाटक हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
13 Oct 2020 10:53 AM IST
कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक महिला को भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के तहत दोषी माना है। कोर्ट ने पाया कि महिला द्वारा उसके पति के खिलाफ फैमिली कोर्ट के समक्ष दिया गया बयान 'आपराधिक मानहानि' के दायरे में आताा है।
हाईकोर्ट ने कहा कि अदालत में दायर याचिकाएं और दिए गए बयान धारा 499 के अर्थ में 'प्रकाशन' के समान होते हैं, इसलिए अगर ऐसे बयान मानहानि करने वाले होते हैं तो सजा हो सकती है।
न्यायमूर्ति डॉ एच.बी प्रभाकर शास्त्री ने सुषमा रानी की तरफ से दायर अपील को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया है। सुषमा रानी ने वर्ष 2012 में रिवीजन कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने इस मामले में उसे दी गई एक माह के साधारण कारावास की सजा को रद्द कर दिया, परंतु उस पर लगाए गए जुर्माने की राशि को 5000 रुपये से बढ़ाकर 15,000 रुपये कर दिया है, जो उसे 1 अक्टूबर से 60 दिनों की अवधि के भीतर अदा करना होगा, अन्यथा महिला को एक महीने के लिए साधारण कारावास की डिफॉल्ट सजा काटनी होगी।
केस की पृष्ठभूमि
पति एच एन नागराजा राव ने बेंगलुरु की फैमिली कोर्ट में अपनी पत्नी के खिलाफ एक मैट्रिमोनियल केस दायर किया था, जिसमें हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 9 के तहत वैवाहिक संबंधों की पुनर्स्थापना की मांग की गई थी।
इस मामले में अभियुक्त (पत्नी) ने आपत्तियों पर अपना बयान दायर किया, जिसमें उसने शिकायतकर्ता (पति) पर कुछ मानहानि करने वाले आरोप लगाए थे। फैमिली कोर्ट ने अपने 11 अप्रैल 2005 के फैसले से तहत याचिका को स्वीकार कर लिया और और कंजुगल राइट्स की बहाली का आदेश दिया था।
वर्ष 2006 में, पति ने अपनी पत्नी के खिलाफ शिकायत दायर करते हुए आरोप लगाया था कि उक्त मामले में उसकी पत्नी द्वारा दिए गए बयानों से उसकी प्रतिष्ठा कम हुई है और इस कारण उसकी बदनामी हुई है।
25 अक्टूबर, 2010 को अपने आदेश के तहत अदालत ने मामले का निपटारा करते हुए पत्नी को आईपीसी की धारा 500 के तहत दोषी ठहराया था और उसे एक महीने की अवधि के लिए साधारण कारावास और 5,000 रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई थी।
इस आदेश को उसने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, फास्ट ट्रैक कोर्ट-XIV, CCC बैंगलोर के समक्ष चुनौती दी थी, जिस अनेपने 15 दिसंबर, 2012 के आदेश के तहत अपील को खारिज कर दिया था। जिसके बाद पत्नी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और पति ने एक याचिका दायर कर उसकी सजा बढ़ाने की मांग की।
अदालत ने दोनों याचिकाओं पर फैसला करते हुए निम्नलिखित प्रश्नों को तैयार किया।
1- क्या शिकायत से यह उचित संदेह से परे साबित हुआ है कि आरोपी ने भारतीय दंड संहिता की धारा 500 के तहत अपराध किया है?
2- क्या 25 अक्टूबर 2010 को ट्रायल कोर्ट द्वारा सी.सी नंबर 11445/2006 के तहत आरोपी को सुनाई गई सजा को बढ़ाया जाना चाहिए?
3-क्या इन रिवीजन याचिकाओं के तहत दिया गया फैसला और सजा का निर्णय,किसी अवैधता, अनौचित्यपूर्ण से ग्रस्त है,जिसमें कोर्ट के हस्तक्षेप की जरूरत हो?
अपीलार्थी (महिला) के वकील ने कहा कि वैवाहिक मामले में उसके द्वारा दिए गए बयान आईपीसी की धारा 499 के तहत प्रकाशन के समान नहीं है।
अधिवक्ता पी.वी. कल्पना, जिन्हें महिला की तरफ से दायर अपील में प्रतिवादी/शिकायतकर्ता के लिए एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया गया था, ने प्रस्तुत किया कि एक अदालत में दायर की गई याचिकाएं और एक विधि न्यायालय में दिए गए बयान को एक विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। आगे यह भी कहा गया है कि कोर्ट में दायर बयान प्रकाशन के समान हैं।
न्यायालय ने इस सबमिशन को स्वीकार कर लिया क्योंकि इन सबमिशन को अन्य हाईकोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए फैसलों का समर्थन भी मिला है।
अदालत ने इस बात को भी ध्यान में रखा कि अभियुक्त ने स्वयं स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उसी के कहने पर फैमिली कोर्ट में आपत्ति का बयान दर्ज किया गया था, और उसने उक्त मामले में अपने साक्ष्य दिए हैं। अपनी दलील दर्ज करने के अलावा, उसने अपने चाचा, चाची और एक दोस्त को भी इस बयान के बारे में भी बताया था।
कोर्ट ने कहा कि,''इसलिए, यह स्पष्ट है कि वैवाहिक मामले में आपत्तियों के बयान के रूप में अपने बयानों को दर्ज करने के अलावा, उसने रिश्तेदारों और शिकायतकर्ता के एक दोस्त को भी इस सामग्री या तथ्यों के बारे में बताया था। जो स्पष्ट रूप से यह स्थापित करता है कि आरोपी द्वारा दिया गया कथित मानहानि करने वाला बयान आईपीसी की धारा 499 के तहत प्रकाशित हुआ था।''
इस सवाल पर कि क्या आपत्तियों के बयान में दिया गया कथित बयान मानहानि करने वाला है या नहीं? अदालत ने बयान को पुन पेश किया और कहा ''अभियुक्त के बयानों की सामग्री, यह कहने के लिए पर्याप्त है कि उक्त कथन प्रकृति में मानहानि करने वाले थे,बशर्ते जब तक कि वे आईपीसी की धारा 499 के तहत दिए गए किसी अपवाद की श्रेणी में न आते हो।''
अदालत ने यह भी देखा कि क्या वर्तमान मामला आईपीसी की धारा 499 के तहत दिए गए अपवादों के अंतर्गत आता है, क्या यह कथन गुड फेथ के साथ दिया गया था?
पीठ ने कहा,''हालांकि अभियुक्त के लिए वकील ने तर्क दिया था कि उसने अच्छे विश्वास या गुड फेथ के साथ यह बयान दिया था। परंतु अभियुक्त के अनुसार, वे सत्य थे। यदि वे सच थे और आईपीसी की धारा 499 के प्रथम अपवाद के तहत आते हैं, तो उसे यह साबित करना था कि वे सही थे। जाहिर है, आपत्तियों के बयान में उन बयानों को दर्ज कराने और सबूतों में इसे दोहराने के अलावा , उसने यह दिखाने का कोई प्रयास नहीं किया कि वे सच्चाई के प्रतिरूप थे या वे अच्छे विश्वास में दिए गए थे। इसलिए यह सुरक्षित रूप से माना जा सकता है कि शिकायतकर्ता ने उचित संदेह से परे साबित कर दिया है कि आरोपी ने आईपीसी की धारा 499 के तहत मानहानि का अपराध किया है, जो आईपीसी की धारा 500 के तहत दंडनीय है।''
सजा को रद्द करते हुए अदालत ने कहा कि,''मामले की विशेष परिस्थितियों में, मेरा विचार है कि अभियुक्त को कारावास की सजा देना, हालांकि यह एक छोटी अवधि की हो सकती है, परंतु फिर भी ऐसी सजा उसके भविष्य के साथ-साथ उसकी बेटी के भविष्य को भी प्रभावित करेगी। दूसरी ओर चूंकि भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के तहत केवल जुर्माना भी लगाया जा सकता है,इसलिए ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए जुर्माने की राशि को बढ़ाया जा सकता है।''
मामले का विवरण-
केस का शीर्षक- सुषमा रानी और एच एन नागराजा राव
केस नंबर-क्रिमिनल रिवीजन पेटिशन नंबर 152/2014
निर्णय की तिथि-1 अक्टूबर, 2020।
प्रतिनिधित्व-
याचिकाकर्ता के लिए वकील आशीष कृपाकर।
एमिकस क्यूरी, एडवोकेट पी.वी. कल्पना
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