इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साढ़े सात साल से अधिक समय से जेल में बंद हत्या के आरोपी को जमानत दी

LiveLaw News Network

2 Feb 2021 3:21 PM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साढ़े सात साल से अधिक समय से जेल में बंद हत्या के आरोपी को जमानत दी

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में साढ़े सात सालों से अधिक समय से जेल में बंद हत्या के एक आरोपी को जमानत दी। लंबे समय से जेल में बंद रहने के बावजूद, ट्रायल कोर्ट में आरोपी के खिलाफ किसी भी भौतिक गवाह या सबूत को पेश नहीं किया जा सका था।

    आरोपी के तीसरे जमानत आवेदन को अनुमति देते हुए हाईकोर्ट ने कहा, "हालांकि, जिस अपराध के लिए आवेदक को आरोपित किया गया है, वह गंभीर है, लेकिन विचार के लिए यह भी एक प्रासंगिक कारक है कि आरोप दो गवाहों की गवाही पर आधारित है, जबकि दोनों में से किसी को भी सीबीआई ने पेश नहीं किया है, और मुकदमा 2013 से लंबित है। सीबीआई का जवाबी हलफनामा भी उस समय सीमा के संबंध में मौन है, जिसमें उन दोनों गवाहों को मुकदमे की कार्यवाही में पेश किया जाना है।"

    ज‌स्टिस मनीष माथुर की एकल पीठ ने आगे कहा, "प्रथम दृष्टया, यह प्रतीत होता है कि गवाहों की गवाही के बिना, आवेदक के खिलाफ साक्ष्य परिस्थितिजन्य है और वर्तमान में कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि जिस अपराध का आरोप लगाया गया है, वह प्रथम दृष्टया किया गया हो सकता है..."

    पृष्ठभूमि

    आवेदक-अभियुक्त को एक हत्या के संबंध में गिरफ्तार किया गया था। उस पर मृतक के ठिकाने की जानकारी देने का आरोप था, जिसके मृतक पर हमला किया गया था। आवेदक की पहली जमानत याचिका योग्यता के आधार पर खारिज कर दी गई थी और दूसरी जमानत याचिका सीबीआई कोर्ट को मुकदमे को तेजी से निस्तार‌ित करने के निर्देश के साथ खार‌िज़ कर दी गई थी।

    तीसरे जमानत आवेदन में, यह दलील दी गई कि अभियोजन पक्ष के 80 गवाहों में से केवल 16 गवाहों की जांच की गई है। इनमें से, दो प्रस्तावित गवाहों ने दावा किया कि आवेदक के खिलाफ उन्हें पेश नहीं किया गया था और सीबीआई के जवाबी हलफनामे में कोई संकेत नहीं था कि वे कब तक पेश ‌किए जाएंगे।

    यह आग्रह किया गया था कि आवेदक को बिना किसी गलती के इतने लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता।

    राज्य की दलीलें

    राज्य सरकार ने जमानत याचिका का विरोध किया, और कहा कि केवल लंबी हिरासत या मामले की सुनवाई आगे नहीं बढ़ी है, के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती है ।

    राज्य सरकार ने कल्याण चंद्र सरकार बनाम राजेश रंजन @ पप्पू यादव और अन्‍य (2004) 7 एससीसी 528, में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जहां हाईकोर्ट के जमानत के पांचवे आवेदन को अनुमति देने क फैसले को रद्द करते हुए कहा गया था, "आदेश में यह देखा गया है कि उच्च न्यायालय ने अभियुक्त के कैद की अवध‌ि और मुकदमे को निकट भविष्य में समाप्त नहीं होने की संभावना को आरोपियों को जमानत देने के पर्याप्त आधार के रूप में दिया है, इस तथ्य के बावजूद कि आरोपी पर लगे अपराध में आजीवन कारावास या यहां तक ​​कि मौत की सजा तक का प्रावधान है।

    ऐसे मामलों में, हमारी राय में, केवल इस आधार पर कि आरोपी एक निश्च‌ित अवध‌ि (इस मामले में तीन साल) तक जेल में बंद रहा है, जमानत पाने का हकदार नहीं होगा, और न ही इस तथ्य के आधार पर कि निकट भविष्य में मुकदमे के समाप्त होने की संभावना नहीं है, जब कथित अपराध गंभीर है और जमानत की अवधि में अभ‌ियुक्त गवाहों के साथ छेड़छाड़ करने के आरोप हों।"

    इसी प्रकार, चेन्ना बोयन्ना कृष्णा यादव बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2007) 1 SCC 242, यह आयोजित किया गया था कि जहां कथित अपराध की गंभीरता अधिक है, वहां मात्र जेल की अवधि या तथ्य कि ट्रायल निकट भविष्य में समाप्त होने की संभावना नहीं है या दोनों ही कारणों के होने पर भी अभियुक्त को जमानत का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। फिर भी, जमानत देने के प्रश्न को तय करते समय इन दोनों कारकों को भी ध्यान में रखा जा सकता है।

    परिणाम

    शुरुआत में, खंडपीठ ने कहा कि इस मामले में एक चौथाई गवाहों को भी ट्रायल के दौरान पेश नहीं किया गया था। कोर्ट ने कहा, "ट्रायल के दौरान 15 गवाहों की जांच की गई है, लेकिन आज की तारीख में वे कुल 80 गवाहों का एक चौथाई भी नहीं हैं, जिन्हें सीबीआई द्वारा अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में पेश किया जाना है। आवेदक 03/04/2013, यानी साढ़े सात साल से अधिक समय से अंडर ट्रायल के रूप में जेल में बंद रहा है।

    पूर्वोक्त कारक दूसरी जमानत अर्जी की अस्वीकृति और आज के बीच बदली हुई परिस्थितियों की ओर इशारे करते हैं। आवेदक की ओर से पेश विद्वान वकील की दलील इसल‌िए काफी हद तक सही है कि सीबीआई द्वारा अभियोजन पक्ष के गवाहों के रूप में पेश किए जाने वाले कुल 80 गवाहों में से केवल 16 गवाहों की जांच हुई है, जिससे निकट भविष्य में मुकदमे के समाप्त होने की कोई उम्मीद नहीं है।"

    इसने आगे यह भी कहा कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने माना हो कि गंभीर अपराधों के मामले में मुकदमे की सुनवाई में देरी के आधार पर जमानत नहीं दी जानी चाहिए (जैसा कि राज्य सरकार ने मिसाल दी है), इसने बाद में जमानत आवेदनों पर विचार करने के लिए कारक के रूप में अंडर ट्रायल की लंबे समय तक की जेल की अवधि पर विचार करने पर रोक नहीं लगाया है।

    खंडपीठ ने कहा, "यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस प्रकार के कारक पर विचार किया जा सकता है, जबकि बाद में जमानत आवेदनों पर सुनवाई की जाती है, हालांकि उक्त कारक को अन्य प्रासंगिक कारकों के साथ देखा जाना चाहिए।"

    संजय चंद्र बनाम सीबीआई, (2012) 1 एससीसी 40 पर भरोसा कायम किया गया।


    जमानत याचिका को अनुमति देने के लिए हाईाकोर्ट ने अन्य आधार इस प्रकार दिए हैं-

    -हालांकि एफआईआर में, आवेदक पर मृतक पर फायरिंग करने का आरोप है, जबकि सीबीआई की ओर से दायर जवाबी हलफनामे में, आवेदक की भूमिका मृतक के वास्तविक ठिकानों की जानकारी देने तक सीमित है;

    -नीतीश शुक्ला और एक अन्य व्यक्ति की गवाही पर सीबीआई द्वारा आवेदक के खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने बात कही गई है, हालांकि उक्त अन्य व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया है। सीबीआई द्वारा उपरोक्त दोनों व्यक्तियों में से किसी को भी आज तक मुकदमे की कार्यवाही में गवाह के रूप में पेश नहीं किया गया है। जवाबी हलफनामा भी खामोश है कि कब सीबीआई उक्त दोनों व्यक्तियों को मुकदमे में गवाह के रूप में पेश करना चाहती है।

    -जवाबी हलफनामे में सीबीआई ने खुद शिकायत की सत्यता पर संदेह किया है।

    -सीबीआई ने अपने जवाबी हलफनामे में कहा है कि आवेदक कोजमानत पर देने से मुकदमे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि इस बात की संभावना है कि आवेदक गवाहों को प्रभावित करने और सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश कर सकता है। हालांकि, जवाबी हलफनामे में एक दोषपूर्ण बयान को छोड़कर, इस तरह के दावे का समर्थन में सीबीआई कोई सबूतों नहीं दिया है।

    केसः राजीव प्रताप सिंह बनाम सीबीआई

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