इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाना से बच्चे की कस्टडी की मांग करने वाली दादा-दादी की हैबियस कार्पस याचिका खारिज की

LiveLaw News Network

25 Oct 2021 9:24 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नाना से बच्चे की कस्टडी की मांग करने वाली दादा-दादी की हैबियस कार्पस याचिका खारिज की

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुक्रवार को दादा-दादी की की तरफ से दायर उस हैबियस कार्पस(बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें लगभग 3 वर्ष की आयु की एक नाबालिग बच्ची की कस्टडी उसके नाना से लेकर उनको देने की मांग की गई थी।

    न्यायमूर्ति वाई के श्रीवास्तव ने कहा कि मामले के तथ्य यह संकेत नहीं देते हैं कि नाबालिग को उसके नाना के पास रखना किसी भी तरह से अवैध और अनुचित कस्टडी के समान है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बच्ची बचपन से ही, जब वह कम उम्र की थी, अपने नाना के साथ रह रही है। वहीं एक तथ्य यह भी है कि कस्टडी का दावा करने वाला पिता बच्ची की मां की मौत से संबंधित एक आपराधिक मामले में आरोपी हैं और यह एक प्रासंगिक कारक है। अन्य तथ्य,जो महत्वपूर्ण हैं,वो बच्चे को एक सुखद घर में प्यार और अच्छी देखभाल, मार्गदर्शन, अच्छे व दयालु संबंध प्रदान करने की आवश्यकता है, जो बच्चे के चरित्र और व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।''

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे का कल्याण सर्वाेपरि विचार होगा न कि पक्षकारों द्वारा संरक्षकता से संबंधित किए गए प्रतिस्पर्धी अधिकार, जिसके लिए सही उपाय उचित वैधानिक मंच के समक्ष होगा।

    पृष्ठभूमि

    दादा-दादी ने नाबालिग बच्ची की कस्टडी की मांग करते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की। उक्त नाबालिग बच्ची का जन्म विवाह के बाद हुआ था। वहीं पति/बच्ची के पिता पर दहेज की मांग को लेकर उत्पीड़न और क्रूरता करने का आरोप लगाया गया है। इसी के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए, 304बी और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3/4 के तहत एक आपराधिक शिकायत दर्ज की गई थी।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता एमडी मिश्रा और रामानुज यादव ने तर्क दिया कि नाबालिग बच्ची की मां की अनुपस्थिति में, उसके पिता, जो एकमात्र जीवित माता-पिता हैं, हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1951(Hindu Minority and Guardianship Act, 1951) की धारा 6 के अनुसार उसके प्राकृतिक अभिभावक होंगे। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि नाना के पास बच्ची की कस्टडी अवैध है।

    उन्होंने तेजस्विनी गौड़ बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी व अन्य और कुमारी पलक (नाबालिग) व एक अन्य बनाम राज कुमार विश्वकर्मा व अन्य के मामले में दिए गए फैसलों का हवाला भी दिया।

    प्रतिवादियों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप त्रिवेदी ने यह कहकर उक्त दावे का खंडन किया कि नाबालिग लड़की उस समय से अपने नाना की कस्टडी में है जब से उसकी मां को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था।

    आगे प्रस्तुत किया गया कि प्रताड़ना व क्रूरता के कारण उसकी मां की मृत्यु होने के बाद, नाबालिग बच्ची अपने नाना की देखभाल और कस्टडी में है। इसे किसी भी तरह से अवैध नहीं ठहराया जा सकता है। इसके अलावा, यह भी बताया गया कि दहेज हत्या से संबंधित प्राथमिकी में दादा-दादी और पिता के नाम आरोपियों की सूची में शामिल हैं और वह एक आपराधिक मुकदमे का सामना कर रहे हैं।

    यह भी प्रस्तुत किया गया कि उक्त याचिकाकर्ताओं को बच्ची की कस्टडी प्रदान करना पूरी तरह से नाबालिग बच्ची के हित के खिलाफ होगा। प्रतिवादियों ने अपने दावे का समर्थन करने के लिए कई न्यायिक फैसलों का हवाला दिया।

    कोर्ट का निष्कर्ष

    कस्टडी के मामलों में अधिकार के रूप में रिटः

    हैबियस कार्पस की रिट जारी करने के लिए असाधारण क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर, न्यायालय ने कहा कि यह उस अधिकार क्षेत्र के तथ्य पर निर्भर होगा जहां आवेदक प्रथम दृष्टया यह मामला स्थापित करता है कि कस्टडी गैरकानूनी है। केवल जहां उपर्युक्त क्षेत्राधिकार तथ्य स्थापित होता है, आवेदक अधिकार के रूप में रिट का हकदार हो जाता है।

    नित्या आनंद राघवन बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) व एक अन्य के मामले पर भरोसा करते हुए, अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायालय का मुख्य कर्तव्य यह पता लगाना है कि क्या बच्चे की कस्टडी गैरकानूनी और अवैध है और क्या बच्चे के कल्याण के लिए यह आवश्यकता है कि उसकी वर्तमान कस्टडी में बदलाव किया जाना चाहिए?

    कोर्ट ने सैयद सलीमुद्दीन बनाम डॉ. रुखसाना व अन्य के मामले पर भी भरोसा किया, जहां यह माना गया था कि हैबियस कार्पस याचिका में एक बच्चे की कस्टडी उसके मां/पिता से लेकर पिता/मां को देने की मांग करने के मामले में, न्यायालय को मुख्य तौर पर यह पता लगाना होगा कि क्या बच्चे की कस्टडी को गैरकानूनी या अवैध कहा जा सकता है और क्या बच्चे के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि वर्तमान कस्टडी में बदलाव किया जाए?

    कोर्ट ने कहा कि गार्जियनशिप एंड वार्ड्स एक्ट की धारा 12 के तहत, उसे नाबालिग की सुरक्षा के लिए इंटरलोक्यूटरी ऑर्डर करने का अधिकार है, जिसमें नाबालिग की अस्थायी कस्टडी और नाबालिग की संपत्ति की सुरक्षा का आदेश देना भी शामिल है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    ''उपरोक्त प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि एक नाबालिग बच्चे की कस्टडी के मामले में, सर्वाेपरि विचार ''नाबालिग का कल्याण'' है, न कि माता-पिता या रिश्तेदारों के अधिकार जो एक क़ानून के तहत उनको मिले हैं। एचएमजीए की धारा 13 में प्रयुक्त शब्द ''कल्याण'' को उदारतापूर्वक समझा जाना चाहिए और इसे व्यापक अर्थ में लिया जाना चाहिए।''

    कोर्ट ने आगे कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान बच्चों की कस्टडी से संबंधित विषय धारा 26 के तहत निहित प्रावधानों के अनुसार नियंत्रित होता है, जो एचएमए के तहत ''हर कार्यवाही'' पर लागू होते हैं। यह न्यायालय को (1) कस्टडी, (2) भरण-पोषण, और (3) नाबालिग बच्चों की शिक्षा से संबंधित प्रावधान करने की शक्ति देता है। इसके लिए, न्यायालय डिक्री में ऐसे प्रावधान कर सकता है जो वह उचित और सही समझे, और वह कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान अंतरिम आदेश पारित कर सकता है। ऐसे सभी आदेश डिक्री पारित करने के बाद भी पारित किए जा सकते हैं।

    अदालत ने कहा कि कुछ मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट का उपयोग किया जाता है, ताकि एक पार्टी को 'नियंत्रण का अधिकार' लागू करने में सक्षम बनाया जा सके - जो घरेलू संबंधों से उत्पन्न होते हैं, विशेष रूप से माता-पिता को बच्चे की कस्टडी और नियंत्रण प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए, जिसे कथित तौर पर किसी अन्य व्यक्ति ने अपनी कस्टडी में ले लिया हो। हालांकि, अदालतों के लिए इन मामलों में बच्चे के सर्वाेत्तम हित में क्या है, इसकी जांच करने के अलावा और आगे जाने की आवश्यकता नहीं होती है, और जब तक यह बच्चे के कल्याण के लिए प्रतीत न होता हो, उसे कस्टडी में भेजने का आदेश नहीं दिया जा सकता है।

    कोर्ट ने माना,

    ''बंदी प्रत्यक्षीकरण की एक रिट में संरक्षकता या कस्टडी के दावे को पूर्ण अधिकार नहीं माना जा सकता है और बच्चे के हित में जो प्रतीत होगा,वहीं किया जाएगा। ऐसे मामलों में, यह स्वतंत्रता का नहीं बल्कि पालन-पोषण और देखभाल का सवाल है। बच्चे के कल्याण के साथ-साथ संरक्षकता से संबंधित प्रतिस्पर्धी अधिकारों की जांच करते समय, विचार के लिए प्रमुख परीक्षा होगी - बच्चे के कल्याण और हित के लिए सबसे अच्छा क्या होगा? कस्टडी से संबंधित मामलों का फैसला करते समय बच्चे का हित पार्टियों के कानूनी अधिकारों पर प्रबल होगा।''

    बच्चे के कल्याण पर सर्वाेपरि विचारः

    कोर्ट ने कहा कि माता-पिता के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते समय, बच्चे के आराम, संतोष, स्वास्थ्य, शिक्षा, बौद्धिक विकास, और अनुकूल परिवेश के साथ-साथ शारीरिक आराम और नैतिक मूल्यों जैसे कारकों को उचित महत्व देना आवश्यक होगा, चूंकि सर्वाेपरि विचार बच्चे का कल्याण है।

    कस्टडी/अभिभावकता से संबंधित दावों के संदर्भ में एक बच्चे के कल्याण के व्यापक आयाम पर विचार करना होगा। इसमें आवश्यक/भौतिक कल्याण शामिल हो सकता है - जो एक सुखद घर और जीवन स्तर के आरामदायक मानक प्रदान करने के लिए संसाधनों के अर्थ में है। हालांकि, इन भौतिक विचार का स्थान गौण होगा। अधिक महत्वपूर्ण स्थिरता और सुरक्षा, प्यार और अच्छी देखभाल और मार्गदर्शन, गर्म और करुणामय संबंध होंगे - जो बच्चे के मनोसामाजिक, शारीरिक विकास और एक स्वतंत्र व्यक्तित्व को आकार देने के लिए आवश्यक हैं।

    यह भी कहा गया कि विवादित तथ्यों के मामले में जहां विस्तृत जांच की आवश्यकता होती है, न्यायालय अपने असाधारण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से इनकार कर सकता है और पक्षों को उपयुक्त न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का निर्देश दे सकता है।

    केस का शीर्षकः रेशु उर्फ नित्या व 2 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व 2 अन्य

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