इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति की हत्या की आरोपी मां को बेटी की कस्टडी सौंपने से इनकार किया, बरी होने पर दोबारा कस्टडी मांगने की आज़ादी दी
LiveLaw News Network
3 March 2021 12:57 PM IST
एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले हफ्ते याचिकाकर्ता महिला को दो साल की बेटी की कस्टडी सौंपने से इनकार कर दिया। महिला पर अपने पति (यानी बच्चे के पिता) की हत्या का आरोप है।
जस्टिस जेजे मुनीर की खंडपीठ ने हालांकि, मां को यह आजादी दी कि यदि वह संदेह या अन्यथा के आधार पर हत्या के आरोप से बरी हो जाती है तो बेटी की कस्टडी के लिए दोबारा अपील कर सकती है।
मामला
याचिकाकर्ता / मां (ज्ञानमती कुशवाहा) ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की थी, जिसमें कहा गया था कि उसकी नाबालिग बेटी को अदालत में पेश करने का आदेश दिया जाए और बेटी को उसकी (याचिकाकर्ता-माँ की) देखभाल और कस्टडी में सौंप दिया जाए।
तथ्य
याचिकाकर्ता / मां ज्ञानमती कुशवाहा अपने पति की हत्या के मामले में सह-अभियुक्त के रूप में मुकदमे का सामना कर रही हैं। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि उसे कमल कुशवाहा (पति के मामा) के कहने पर पति की हत्या में फंसाया गया है।
उसे 16 मई 2018 को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था, और उस समय, कमल ने द्रिशा को उससे छीन लिया था। ऐसा कहा जाता है कि उस समय, द्रिशा ने दूध पीना भी नहीं छोड़ा था, फिर भी ज्ञानमती को बेटी की देखभाल और कस्टडी से वंचित कर दिया गया।
ज्ञानमती ने जमानत के लिए आवेदन किया और 10 सितंबर 2018 को जेल से रिहा कर दिया गया। जमानत पर रिहा होने के बाद, उसने कमल कुशवाहा (पति के मामा) से कई बार कहा कि उसने बेटी की कस्टडी वापस दी जाए, लेकिन उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
तर्क
याचिकाकर्ता ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि वह द्रिशा की मां है, और पति की मृत्यु के बाद एकमात्र जीवित प्राकृतिक संरक्षक है।
याचिकाकर्ता ने अदालत के सामने दलील दी कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गॉर्डियनशिप एक्ट, 1956 की धारा 6 (ए) के प्रावधानों के तहत, पांच वर्ष की आयु तक बच्चे की कस्टडी का अधिकार सामान्य रूप से मां के पास होता है, जो नाबालिग की प्राकृतिक संरक्षकता के उसके अधिकार से काफी अलग है।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि वर्तमान में सुरेश कुशवाहा (द्रिशा के दादाजी) के पास बेटी की कस्टडी है और यह बच्चे के हित में नहीं है कि उसकी हिरासत को दादा को सौंपी जाए, जबकि मां मौजूद है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी पक्ष ने दलील दी कि वह दिशा की कस्टडी की हकदार नहीं होगी, क्योंकि वह अपने पति की हत्या से संबंधित मामले में अभियुक्त है। दलील दी गई कि वह अपने पति की हत्या के लिए मुकदमे का सामना कर रही है, और अगर उसे दोषी ठहराया जाता है तो बच्चे का जीवन बर्बाद हो सकता है।
फैसला
फैसले में कोर्ट ने कहा कि कानून निश्चित रूप से बच्चे की कस्टडी ऐसी मां को सौंपने का समर्थन नहीं करेगा, जो अंडरट्रायल है और जिस पर बच्चे के पिता की हत्या का आरोप है और वह भी प्रेमी की साथ मिलकर...
कोर्ट ने कहा, "बच्चे की देखभाल और कस्टडी पर मां का अधिकार है, और बदले में, बच्चे का मां के प्यार और स्नेह पर अधिकार है, जिसका कानून इस हद तक ध्यान रखता है कि अगर मां एक असंबंधित मामले में जेल में बंद हो, तो पांच या छह वर्ष की आयु तक के बच्चों को, विभिन्न राज्यों में विभिन्न जेल नियमों के अनुसार, मां के साथ जेल में रहने की अनुमति दी जाती है।"
कोर्ट ने कहा कि कानून कस्टडी के संबंध में एक अभिभावक या दूसरे के अधिकार के बारे में बोल सकता है, लेकिन, ठोस रूप से, यह बच्चे की कस्टडी पर अभिभावक के अधिकार या संरक्षकता के संबंध में बिल्कुल नहीं है; यह सब बच्चे के कल्याण के बारे में है।
कोर्ट ने कहा कि यदि मां को दोषी ठहराया जाता है, तो नाबालिग का कल्याण बाधित होगा।
कोर्ट ने आगे कहा कि यह आशंका कि मां वास्तव में अपने पति की हत्या में एक साजिशकर्ता हो सकती है, एक ऐसे व्यक्तित्व की भविष्यवाणी करती है, जो बच्चे को नैतिक मूल्यों सीखाने में फायदेमंद नहीं होगी- यह एक बच्चे के कल्याण का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू है।
कोर्ट ने कहा, "अगर मां निर्दोष होती है और वह बरी हो जाती है, तो बच्चे को मां की देखभाल और कस्टडी से वंचित होने का जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती है.....
इसके साथ, बरी होने की स्थति में उपयुक्त अदालत का दरवाजा खटखटाने की स्वतंत्रता देते हुए अदालत ने मां की याचिका को खारिज कर दिया।
केस टाइटिल - ज्ञानमती कुशवाहा और एक अन्य बनाम स्टेट ऑफ यूपी और 4 अन्य [हैबियस कॉर्पस रिट पिटीशन नंबर - 1217 ऑप 2019]