अतिरिक्त महाधिवक्ता की नियुक्ति के खिलाफ दायर याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज की
LiveLaw News Network
3 Sept 2020 3:25 PM IST

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि राज्य में केवल एक ही महाधिवक्ता हो सकता है और अतिरिक्त महाधिवक्ता की नियुक्ति संविधान के तहत अनुज्ञेय है।
जस्टिस पंकज कुमार जायसवाल और जस्टिस दिनेश कुमार सिंह की खंडपीठ ने कहा कि राज्य की ओर से न्यायालय की उचित/सुचारू सहायता सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त महाधिवक्ता की नियुक्ति आवश्यक है।
पीठ ने स्पष्ट किया कि एक अतिरिक्त महाधिवक्ता केवल महाधिवक्ता के कार्यालय के ''तत्काल और नियमित कार्य'' का निर्वहन करता है और उसे महाधिवक्ता की शक्तियां नहीं सौंपी जाती हैं, जैसा कि संविधान के तहत निहित है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, एक प्रैक्टिसिंग एडवोकेट (अशोक पांडे) ने 26 जून, 2020 को जारी एक सर्कुलर के पैरा -3 को चुनौती दी थी, जिसमें राज्य सरकार ने निर्देश दिया था कि एडवोकेट जनरल की अनुपस्थिति में, इलाहाबाद में तत्काल और नियमित कामकाज अतिरिक्त महाधिवक्ता मनीष गोयल द्वारा संभाला जाएगा,जबकि लखनऊ में अतिरिक्त महाधिवक्ता विनोद कुमार शाही द्वारा यह काम संभाला जाएगा।
इस मामले में याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि-
-महाधिवक्ता,सरकार और संवैधानिक प्राधिकारण का एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी है। इसलिए, उपरोक्त सर्कुलर का पैरा -3 असंवैधानिक है क्योंकि इस सर्कुलर में महाधिवक्ता की अनुपस्थिति में उसके कार्यालय का तत्काल व नियमित कामकाज संभालने के लिए दो अतिरिक्त महाधिवक्ता को नियुक्त किया गया है।
-राज्य के महाधिवक्ता में संविधान या अलग-अलग अधिनियमों के तहत निहित सभी शक्तियां केवल और केवल महाधिवक्ता द्वारा ही निष्पादित की जा सकती हैं।
-बीमारी या किसी अन्य कारण से महाधिवक्ता उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में, राज्य सरकार को अपने कार्यालय के सभी कर्तव्यों को निभाने के लिए महाधिवक्ता के रूप में नए पदाधिकारी को नियुक्त करना होगा। याचिकाकर्ता के अनुसार, महाधिवक्ता की अनुपस्थिति में, महाधिवक्ता का कार्य अतिरिक्त महाधिवक्ता या एडीशनल एडवोकेट जनरल को नहीं सौंपा जा सकता है।
याचिकाकर्ता ने 'एमटी खान बनाम आंध्र प्रदेश व अन्य' के मामले पर विश्वास जताया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब किसी संवैधानिक पद पर निर्दिष्ट योग्यता वाले व्यक्ति को ही नियुक्त किया जा सकता है तो वह ''अकेले'' ही उक्त कार्यालय से जुड़े सभी कार्य व कर्तव्यों का पालन कर सकता है,चाहे वह संवैधानिक या वैधानिक हों। संविधान के तहत यह परिकल्पना नहीं की गई है कि इस तरह के कार्य एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा किए जा सकते हैं।
मुख्य रूप से, संविधान का अनुच्छेद 165 राज्य के महाधिवक्ता की नियुक्ति और उसके कार्यों से संबंधित है। महाधिवक्ता का काम कानूनी मामलों पर राज्य सरकार को सलाह देना और राज्यपाल द्वारा उसे संदर्भित या सौंपे गए कानून से संबंधित अन्य कर्तव्यों का पालन करना है। वहीं संविधान द्वारा या उस समय लागू किसी अन्य कानून के तहत प्रदत्त कार्यों का निर्वहन करना भी महाधिवक्ता का ही कर्तव्य है।
कोर्ट का निष्कर्ष
याचिकाकर्ता की पहली दलील का खंडन करते हुए, कि एडवोकेट जनरल सरकार का एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी है, न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 165 (3) के तहत गवर्नर की इच्छा के अनुसार ही महाधिवक्ता को यह कार्यालय सौंपा जात है और उसे राज्यपाल द्वारा तय किया गया ही पारिश्रमिक मिलता है। फिर भी महाधिवक्ता को ''सरकारी कर्मचारी'' के रूप में नहीं माना जा सकता है और वह राज्य सरकार के अधीनस्थ नहीं है।
कोर्ट ने इस प्रकार समझाया कि-
''अपने कार्यालय के कार्यों और कर्तव्यों के निर्वहन के संबंध में, महाधिवक्ता को राज्यपाल या राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है। क्योंकि किसी भी कानूनी मामले पर राज्य सरकार को सलाह देते समय या राज्यपाल द्वारा सौंपे गए कानूनी कर्तव्यों का पालन करते हुए या परिस्थितियों के तहत उसको प्रदत्त कार्यों के निर्वहन के संबंध में वह अपने विवेक का प्रयोग करना होता है और वहीं करता है जिसे वह अपनी क्षमता के अनुसार सबसे अच्छा तरीका मानता है।''
शेष दो दलीलों का खंडन करते हुए, अदालत ने कहा कि उक्त सर्कुलर के पैरा -3 में केवल यह निर्देश दिया गया है कि महाधिवक्ता की अनुपस्थिति में, ''तत्काल और नियमित कार्य'' को अतिरिक्त महाधिवक्ता द्वारा किया जाएगा।
कोर्ट ने माना कि-
''इस पैरा से पता चलता है कि कि उक्त सर्कुलर के तहत यह केवल एक प्रशासनिक निर्देश है। ताकि महाधिवक्ता की अनुपस्थिति में इलाहाबाद के साथ-साथ लखनऊ में भी महाधिवक्ता के कार्यालय के तत्काल और नियमित कार्यों को पूरा किया जा सकें। इसमें यह निर्देश नहीं दिया गया है कि संविधान के तहत महाधिवक्ता को निर्दिष्ट शक्ति का उपयोग अतिरिक्त महाधिवक्ता द्वारा किया जाएगा।''
कोर्ट ने इस मामले में 'एमके पद्मनाभन बनाम केरल राज्य व अन्य 1978 एलएबी.आई.सी 1336' मामले में केरल हाईकोर्ट की दो सदस्यीय द्वारा दिए गए फैसले पर अपना विश्वास जताया। उस मामले में भी इसी तरह के समान विवाद पर विचार किया गया था।
डिवीजन बेंच ने माना था कि-
'' राज्य सरकार एक अतिरिक्त महाधिवक्ता की नियुक्ति नहीं कर सकती है ,यह दलील योग्यता रहित है। एक राज्य के राज्यपाल को संविधान के तहत, एक महाधिवक्ता की नियुक्ति करनी होती है। इस शक्ति में एक अतिरिक्त महाधिवक्ता को नियुक्ति करने की शक्ति भी शामिल होती है। संविधान का अनुच्छेद 367 यह प्रदान करता है कि जब तक संदर्भ या प्रसंग से अन्यथा अपेक्षित न हो, तब तक साधारण खंड अधिनियम, 1897 संविधान की व्याख्या के लिए लागू होगा। विषय या संदर्भ में कुछ भी ऐसा प्रतिकूल या विरूद्ध नहीं है जो साधारण खंड अधिनियम की प्रयोज्यता को बाहर करता हो। इसलिए अनुच्छेद 165 की व्याख्या करते समय, जनरल क्लॉज एक्ट या साधारण खंड अधिनियम के प्रावधानों पर जोर दिया जाना चाहिए।''
वर्तमान मामले में भी, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला है कि याचिकाकर्ता संविधान के किसी भी अन्य ऐसे प्रावधान को इंगित करने में असमर्थ था, जो उक्त सर्कुलर को किसी भी तरह से प्रतिकूल या असंगत बताता हो।
मामले का विवरण-
केस का शीर्षक- अशोक पांडे बनाम भारत संघ
केस नंबर-पीआईएल (सी) नंबर 12352/2020
कोरम-जस्टिस पंकज कुमार जायसवाल और जस्टिस दिनेश कुमार सिंह