किशोरों के बालपन खोने के लिए हाईकोर्ट ने सोशल मीडिया को ठहराया जिम्मेदार, कहा- तकनीक के अनियंत्रित होने से सरकार असहाय

Shahadat

25 July 2025 11:25 AM IST

  • किशोरों के बालपन खोने के लिए हाईकोर्ट ने सोशल मीडिया को ठहराया जिम्मेदार, कहा- तकनीक के अनियंत्रित होने से सरकार असहाय

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुवार को किशोरों पर टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के 'विनाशकारी' प्रभावों पर गंभीर चिंता व्यक्त की। साथ ही कहा कि ये माध्यम "बहुत कम उम्र में ही उनकी मासूमियत को खत्म कर रहे हैं" और तकनीक की 'अनियंत्रित' प्रकृति के कारण सरकार भी इनके प्रभाव को नियंत्रित नहीं कर सकती।

    जस्टिस सिद्धार्थ की पीठ ने ये टिप्पणियां एक किशोर द्वारा दायर आपराधिक पुनर्विचार स्वीकार करते हुए कीं, जिसमें किशोर न्याय बोर्ड और कौशांबी स्थित POCSO Court के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें कहा गया कि नाबालिग लड़की के साथ सहमति से शारीरिक संबंध बनाने के कथित मामले में उस पर एक वयस्क के रूप में मुकदमा चलाया जाए।

    पईठ ने कहा,

    "रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे यह संकेत मिले कि पुनर्विचारकर्ता कोई शिकारी है और बिना किसी उकसावे के अपराध दोहराने के लिए प्रवृत्त है... सिर्फ़ इसलिए कि उसने एक जघन्य अपराध किया है, उसे एक वयस्क के समकक्ष नहीं माना जा सकता, जबकि मनोवैज्ञानिक द्वारा भी उसके सामाजिक संपर्क में कमी पाई गई।"

    इसके साथ ही सिंगल जज ने टिप्पणी करते हुए निर्देश दिया कि पुनर्विचारकर्ता पर किशोर न्याय बोर्ड द्वारा एक किशोर के रूप में मुकदमा चलाया जाए।

    पुनर्विचार याचिका पर विचार करते हुए न्यायालय ने मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन रिपोर्ट पर ध्यान दिया, जिसमें पाया गया कि पुनर्विचारकर्ता, एक 16 वर्षीय किशोर का आईक्यू 66 है। न्यायालय ने कहा कि यह आईक्यू उसे बौद्धिक कार्यशीलता की 'सीमांत' श्रेणी में रखता है।

    न्यायालय ने आगे कहा कि सेंगुइन फॉर्म बोर्ड टेस्ट के आधार पर उसकी मानसिक आयु केवल छह वर्ष आंकी गई। न्यायालय ने रिपोर्ट के निष्कर्षों को भी ध्यान में रखा, जिसमें उसके सामाजिक क्षेत्रों में कुछ कठिनाइयां पाई गईं और खराब शैक्षणिक प्रदर्शन के साथ-साथ सामाजिक मेलजोल का भी उल्लेख किया गया।

    इस पृष्ठभूमि में जस्टिस सिद्धार्थ ने टिप्पणी की:

    "इस न्यायालय का मानना है कि मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट पुनर्विचारकर्ता के पक्ष में है। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया कि पुनर्विचारकर्ता की मानसिक आयु केवल छह वर्ष है, जब वह 16 वर्ष से अधिक आयु का है... बीकेटी आईक्यू श्रेणियों से...62 अंक वाला पुनर्विचारकर्ता सीमांत श्रेणी में आता है, जो निम्न/औसत से भी नीचे की श्रेणी में आता है।"

    न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि जब पुनर्विचारकर्ता ने पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए, तब उसकी आयु लगभग 14 वर्ष थी। इसने यह भी ध्यान में रखा कि पीड़िता को गर्भपात की दवा देना उसके विवेक पर नहीं था, बल्कि इस निर्णय में दो अन्य लोग भी शामिल थे।

    पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 15 के तहत बोर्ड को चार मानदंडों के आधार पर उचित "प्रारंभिक मूल्यांकन" करना चाहिए: (i) मानसिक क्षमता, (ii) जघन्य अपराध करने की शारीरिक क्षमता, (iii) अपराध के परिणामों को समझने की क्षमता, और (iv) अपराध की परिस्थितियां।

    इस संदर्भ में न्यायालय ने कहा कि यद्यपि यह मामला एक जघन्य अपराध से संबंधित है और पुनर्विचारकर्ता की आयु उस समय 16 वर्ष से अधिक थी। फिर भी किशोर न्याय बोर्ड और अपीलीय न्यायालय कानून के अनुसार, पुनर्विचारकर्ता या उसके अभिभावकों को गवाहों की सूची, दस्तावेज़ और अंतिम रिपोर्ट उपलब्ध कराने में विफल रहे।

    न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम की धारा 15 और नियम 10 तथा 10-ए के तहत निर्धारित प्रक्रिया का उल्लंघन है।

    न्यायालय ने कहा,

    "बोर्ड और अपीलीय न्यायालय ने बिना सोचे-समझे और अधिनियम तथा उसके तहत बनाए गए नियमों के प्रावधानों के विपरीत मामले का फैसला सुनाया।"

    इस बिंदु पर न्यायालय ने यह भी कहा कि केवल एक जघन्य अपराध करने मात्र से ही किसी किशोर पर वयस्क के रूप में मुकदमा चलाने का अधिकार स्वतः नहीं मिल जाता।

    सिंगल जज ने आगे कहा कि यद्यपि मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट पुनर्विचारकर्ता के पक्ष में थी, फिर भी उसे केवल इस आधार पर नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि अपराध जघन्य था।

    न्यायालय ने कहा,

    "निर्भया मामला एक अपवाद था, सामान्य नियम नहीं और सभी किशोरों पर वयस्कों की तरह मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि उनके मानस पर पड़ने वाले समग्र सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर उचित विचार न किया जाए।"

    परिणामस्वरूप, न्यायालय ने निचली अदालतों द्वारा पारित आदेशों को न्यायोचित नहीं पाया और उन्हें रद्द कर दिया।

    हालांकि, विदा लेने से पहले न्यायालय ने बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 2019 में मुमताज अहमद नासिर खान बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में दिए गए अपने फैसले में की गई टिप्पणियों से सहमति व्यक्त की कि "टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया किशोरों के संवेदनशील दिमाग पर विनाशकारी प्रभाव डाल रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप बहुत कम उम्र में ही उनकी मासूमियत खत्म हो रही है।"

    सिंगल जज ने यह भी कहा कि टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे दृश्य माध्यमों के किशोरों पर 'दुष्प्रभाव' को नियंत्रित नहीं किया जा रहा है, न ही ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार इसे नियंत्रित कर सकती है (किशोरों पर इसके हानिकारक प्रभाव को रोकने के लिए), क्योंकि इसमें शामिल तकनीकें अनियंत्रित हैं।

    Case title - Juvenile X vs. State Of U.P. And 3 Others 2025 LiveLaw (AB) 266

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