अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत आरोपी अग्रिम जमानत के लिए सीधे हाईकोर्ट नहीं जा सकता, पहले विशेष अदालतों में जाना चाहिए: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

Shahadat

16 Dec 2022 5:25 AM GMT

  • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के तहत आरोपी अग्रिम जमानत के लिए सीधे हाईकोर्ट नहीं जा सकता, पहले विशेष अदालतों में जाना चाहिए: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आरोपी को पहले अग्रिम जमानत के लिए विशेष अदालत से संपर्क करने की आवश्यकता है, क्योंकि सीआरपीसी की धारा 438 के तहत हाईकोर्ट का मूल अधिकार क्षेत्र ऐसे मामलों मेंं शामिल नहीं है।

    जस्टिस अशोक कुमार वर्मा ने सीधे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले अभियुक्त की अग्रिम जमानत याचिका खारिज करते हुए कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के तहत अग्रिम जमानत देने या खारिज करने का आदेश अधिनियम की धारा 14ए के तहत अपीलीय क्षेत्राधिकार के अधीन होगा न कि सीआरपीसी की धारा 438 के अधीन।

    पृथ्वी राज चौहान बनाम भारत संघ और अन्य (2020) 4 एससीसी 727 मामले का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर शिकायतकर्ता एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता के लिए प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाता है तो अधिनियम की धारा 18 और धारा 18ए(1) लागू नहीं होगी।

    जस्टिस वर्मा ने कहा कि सवाल उस फोरम को लेकर उठता है जहां ''प्रथम दृष्टया मामला बनने'' को लेकर भ्रम होता है।

    यह देखते हुए कि अग्रिम जमानत देने की शक्ति निस्संदेह प्रकृति में समवर्ती है - ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों के साथ निहित होने के कारण पीठ ने कहा कि एससी/एसटी अधिनियम ने के तहत हुए कृत्यों से निपटने के लिए न्यायाल यविशेष प्रक्रिया और विशेष अदालतों या विशेष न्यायालयों को बनाया है।

    यह फैसला सुनाते हुए कि अधिनियम ने विशेष न्यायालयों को प्रधानता और विशिष्टता प्रदान की है, अदालत ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए (1) और (2) में अंतर्वर्ती आदेश के अलावा जमानत देने या नामंजूर करने के किसी भी आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करने का प्रावधान है।

    अदालत ने कहा,

    "अज्ञात, असंगत और अस्पष्ट परिणामों से बचने के लिए और सभी व्यक्तियों के बीच भ्रम से बचने के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए में अभिव्यक्ति 'जमानत' को प्रभावी अर्थ देना आवश्यक है। इस प्रकार यह शब्द धारा 14ए(2) में जमानत में अग्रिम जमानत भी शामिल होगी।"

    अदालत ने कहा कि धारा 14ए ने जमानत देने के लिए मूल अधिकार क्षेत्र के विपरीत हाईकोर्ट को केवल अपीलीय अधिकार क्षेत्र प्रदान किया है।

    अदालत ने इस संबंध में कहा,

    "जब अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 14ए के दायरे की सराहना की जाती है तो यह स्पष्ट होता है कि जमानत देने या इनकार करने के किसी भी आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील का विशिष्ट अधिकार दिया गया है। आगे सचेत और स्पष्ट इरादे से पता चलता है कि सीआरपीसी की धारा 438 के तहत क्षेत्राधिकार के प्रयोग को बाहर करने के लिए एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधान का प्रयोग किया जा सकता है। नतीजतन, अधिनियम की धारा 14ए के तहत अकेले अपीलीय क्षेत्राधिकार का उपयोग हाईकोर्ट द्वारा किया जा सकता है।"

    अदालत ने आगे कहा कि केवल अधिनियम की धारा 14 के तहत गठित अदालतों के पास जमानत के लिए आवेदन पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र हो सकता है और सीआरपीसी की धारा 438 या धारा 439 को उक्त अधिनियम की धारा 14A द्वारा निहित रूप से हटा दिया गया है।

    अदालत ने आगे जोड़ा,

    "अपील केवल विशेष अदालत या विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ होगी और जब तक कि विशेष अदालत का जमानत से इनकार करने का आदेश नहीं है, अभियुक्त को जमानत देने की प्रार्थना करते हुए हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर करने का कोई अधिकार नहीं होगा।"

    केस टाइटल: विनोद बिंदल बनाम हरियाणा राज्य

    साइटेशन: सीआरएम-एम-57392-2022

    कोरम : जस्टिस अशोक कुमार वर्मा

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