अच्छे वकीलों को जज क्यों नहीं नियुक्त किया जा रहा? केंद्र सरकार से जवाब चाहिए: जस्टिस एमबी लोकुर
Shahadat
7 Aug 2025 9:54 AM IST

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने बुधवार (6 अगस्त) को जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बढ़ते कार्यपालिका के हस्तक्षेप पर चिंता जताई। साथ ही इस बात पर अधिक पारदर्शिता की मांग की कि सरकार कुछ उम्मीदवारों को उनकी उत्कृष्ट वकीलों के रूप में प्रतिष्ठा के बावजूद, नियुक्त क्यों नहीं कर रही है।
दिल्ली में एक कार्यक्रम में बोलते हुए जस्टिस लोकुर ने कहा,
"हाल के दिनों में जजों की नियुक्ति में कई समस्याएं आई हैं। नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका का काफी हस्तक्षेप रहा है।"
जस्टिस लोकुर ने बताया कि यद्यपि न्यायिक नियुक्तियों के लिए प्रक्रिया ज्ञापन (MOP) को भारत सरकार के परामर्श से जस्टिस खेहर के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) रहते हुए अंतिम रूप दिया गया था, लेकिन इसे अभी तक लागू नहीं किया गया।
उन्होंने सीनियर एडवोकेट सौरभ कृपाल का उदाहरण दिया, जिन्हें जनवरी, 2023 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा उनके नाम की सिफारिश के बावजूद सरकार द्वारा नियुक्त नहीं किया गया। जस्टिस लोकुर ने बताया कि उनके नाम की सिफ़ारिश दिल्ली हाईकोर्ट ने 2017 में की थी और 2021 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने पहली बार इसे मंज़ूरी दी थी।
इसके बाद जस्टिस लोकुर ने हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट की एडवोकेट श्वेताश्री मजूमदार द्वारा जज पद के लिए अपनी सहमति वापस लेने के उदाहरण का उल्लेख किया, क्योंकि केंद्र ने उनकी नियुक्ति में देरी की थी।
जस्टिस लोकुर ने कहा,
"जहां तक उनका सवाल है, हर कोई कहता है कि वह उत्कृष्ट वकील हैं, जज बनने के योग्य हैं। लेकिन सभी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद भी उन्हें जजों के रूप में नियुक्त नहीं किया गया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी सहमति वापस ले ली। हमारे पास अकील कुरैशी हैं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया, उनकी योग्यता से संबंधित नहीं, बल्कि गुजरात हाईकोर्ट में उनके द्वारा तय किए गए कुछ मामलों के कारण।"
उन्होंने सीनियर एडवोकेट आदित्य सोंधी और एडवोकेट राजेश दातार द्वारा केंद्र की देरी के कारण अपनी सहमति वापस लेने के उदाहरणों का भी उल्लेख किया। जस्टिस लोकुर ने बताया कि एडवोकेट दातार के मामले में उसी सूची में उनसे जूनियर व्यक्तियों की नियुक्ति की गई।
जस्टिस लोकुर ने कहा,
"नियुक्ति प्रक्रिया कॉलेजियम के पास ही रहनी चाहिए। लेकिन अगर यह कार्यपालिका के हाथों में चली जाती है तो हमने देखा है कि किस तरह की गड़बड़ी हो सकती है। व्यक्तियों की सीनियरिटी बदली जा सकती है। यही हो रहा है। उत्कृष्ट वकील, जिन्हें बिना किसी कठिनाई के नियुक्त किया जाना चाहिए था, नियुक्त नहीं किए जा रहे हैं। हमें यह सोचना होगा कि जजों की नियुक्ति कैसे की जाए। हमें यह सोचना होगा कि कैसे चीजों को कम अस्पष्ट बनाया जाए, न केवल कॉलेजियम की ओर से, बल्कि सरकार की ओर से भी। सरकार कुछ नामों को लंबित क्यों रख रही है? सरकार यह क्यों कह रही है कि हम कुछ लोगों की नियुक्ति नहीं करने जा रहे हैं? सरकार कुछ नामों को कॉलेजियम को वापस क्यों भेज रही है? ये ऐसे प्रश्न हैं जो हमें पूछने चाहिए और हमें सभी से, खासकर सरकार से, जवाब मिलने चाहिए।"
गौरतलब है कि अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी भी मंच पर मौजूद थे।
बेंच पर जजों का आचरण
इसके बाद जस्टिस लोकुर ने बेंच पर जजों के आचरण से संबंधित मुद्दे पर प्रकाश डाला। उन्होंने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित उस आदेश का उल्लेख किया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज को दीवानी विवाद को आपराधिक मामले में बदलने की अनुमति देने के लिए फटकार लगाई गई थी, यह कहते हुए कि दीवानी उपचार समय लेने वाले होते हैं।
जस्टिस लोकुर ने कहा,
"सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अत्यंत दुखद दिन है कि ऐसा हुआ है। इसलिए नियुक्त किए जा रहे जजों की गुणवत्ता... मैंने एक ऐसे जज के कुछ फैसले पढ़े, जिनकी अंग्रेजी कोई नहीं समझ सकता।"
जस्टिस लोकुर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत के इतिहास में पहली बार संसद में दो हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लंबित हैं। हालांकि, उन्होंने जजों का नाम नहीं लिया, लेकिन वह जस्टिस यशवंत वर्मा और जस्टिस शेखर कुमार यादव के मामलों का उल्लेख कर रहे थे।
उन्होंने कहा,
"अब जिस प्रकार की गुणवत्ता प्रदर्शित की जा रही है, विशेष रूप से इस तथ्य के साथ कि मैं समझता हूं कि इतिहास में पहली बार जजों के खिलाफ दो महाभियोग प्रस्ताव लंबित हैं, हमें इस बात को लेकर बहुत सावधान रहना होगा कि हम किस प्रकार के व्यक्तियों को नियुक्त करते हैं। साथ ही जजों पर नजर रखनी होगी, जब वे जजों की बेंच पर हों, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इस प्रकार की घटनाएं न घटें।"
तबादलों पर
इसके बाद जस्टिस लोकुर ने जजों के तबादलों का मुद्दा उठाया।
उन्होंने कहा,
"दूसरी ओर, बिना किसी उकसावे या कारण के तबादले होते रहते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट में जस्टिस मुरलीधर का तबादला, जैसा कि सभी जानते हैं, दंगों के दौरान, एक ऐसा आदेश पारित करने के कारण किया गया, जो सरकार को पसंद नहीं था।"
हाल ही में 21 हाईकोर्ट के जजों के तबादले की घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा:
"हमें नहीं पता कि उनका तबादला क्यों किया गया। हमें नहीं पता कि ये दंडात्मक तबादले हैं या नहीं। यह केवल "न्याय के बेहतर प्रशासन" के लिए है। हमें नहीं पता कि इसका क्या अर्थ है। अगर जजों में कुछ गड़बड़ है तो क्या यह बेहतर नहीं है कि वे किसी अन्य हाईकोर्ट में जाने के बजाय न्याय प्रणाली छोड़ दें।"
रिटायरमेंट के बाद नियुक्तियों पर
उन्होंने जजों के रिटायरमेंट के बाद नियुक्तियों के साथ-साथ पद छोड़ने के बाद जजों के राजनीति में प्रवेश करने के मुद्दे पर प्रकाश डाला।
इस संबंध में उन्होंने कहा,
"हमारे सामने एक ऐसी स्थिति आई है, जहां भारत के एक पूर्व चीफ जस्टिस को राज्यसभा सीट से पुरस्कृत किया गया। एक अन्य जज को एक राज्य का राज्यपाल बनाया गया। एक तीसरे जज को दूसरे राज्य का राज्यपाल बनाया गया। हमारे यहां रिटायर जज राजनीति में शामिल हुए हैं। एक वर्तमान जज ने राजनीति में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया और वास्तव में निर्वाचित भी हुए। क्या हम रिटायरमेंट के बाद की नियुक्तियों की इन इच्छाओं को किसी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते?"
इस संदर्भ में, उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली के प्रसिद्ध कथन का हवाला दिया कि रिटायरमेंट-पूर्व निर्णय रिटायरमेंट के बाद की पेशकशों से प्रभावित होते हैं।
जस्टिस लोकुर ने कहा,
"ये ऐसी बातें हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए। इस पर चर्चा के लिए बार से बेहतर कोई जगह नहीं है।"
वह दिल्ली में 'द ग्लोबल ज्यूरिस्ट' द्वारा आयोजित व्याख्यान कार्यक्रम में बोल रहे थे। "न्यायपालिका में नैतिकता: एक प्रतिमान या विरोधाभास" विषय पर व्याख्यान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अभय एस. ओक ने दिया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस कैलाश गंभीर ने की।
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस विजेंद्र जैन ने भी कार्यक्रम में अपने विचार रखे।
कार्यक्रम यहां देखा जा सकता है।

