केरल हाईकोर्ट के मुनम्बम भूमि वक़्फ़ नहीं वाले निष्कर्ष को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, वक़्फ़ संगठन ने दाख़िल की विशेष अनुमति याचिका
Amir Ahmad
19 Nov 2025 12:36 PM IST

केरल हाईकोर्ट के उस निष्कर्ष को चुनौती देते हुए कि मुनम्बम की 404.76 एकड़ भूमि वक़्फ़ नहीं है, केरल वक़्फ़ संरक्षण वेधि ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दाख़िल की है। यह याचिका 10 अक्टूबर को हाईकोर्ट की डिवीज़न बेंच द्वारा दिए गए उस फैसले के विरुद्ध है, जिसमें राज्य सरकार द्वारा भूमि की प्रकृति और सीमा की जांच के लिए एक सदस्यीय आयोग की नियुक्ति को वैध ठहराया गया।
पृष्ठभूमि
मुनम्बम विवाद एर्नाकुलम ज़िले की 404.76 एकड़ भूमि से जुड़ा है, जिसे 1950 में मोहम्मद सिद्दीक सैत द्वारा फ़ारूक़ कॉलेज मैनेजिंग कमेटी को हस्तांतरित किया गया। अगले दशकों में कॉलेज ने भूमि के हिस्से कई व्यक्तियों को बेच दिए, जिनमें से अनेक ने घर और अन्य निर्माण भी किए।
2019 में केरल वक़्फ़ बोर्ड ने उक्त भूमि को वक़्फ़ संपत्ति घोषित कर दिया यह मानते हुए कि 1950 का दस्तावेज़ वक़्फ़ दस्तावेज़ है न कि साधारण उपहार। इस निर्णय का विरोध भूमि खरीदने वाले परिवारों और स्थानीय निवासियों ने किया, जिससे यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गया विशेषकर वक़्फ़ संशोधन विधेयक 2025 के समय। विरोध के बीच राज्य सरकार ने पूर्व जज जस्टिस सी.एन. रामचंद्रन नायर की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग का गठन किया।
बाद में हाईकोर्ट के सिंगल बेंच ने आयोग की नियुक्ति यह कहते हुए रद्द की कि मामला वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के अधिकार-क्षेत्र में आता है। परंतु राज्य की अपील पर डिवीज़न बेंच ने सिंगल बेंच का आदेश पलटते हुए आयोग को वैध ठहराया और साथ ही टिप्पणी की कि यह भूमि वक़्फ़ नहीं है और बोर्ड द्वारा किया गया पंजीकरण वक़्फ़ अधिनियम, 1995 के विपरीत है।
वक़्फ़ संरक्षण वेधि द्वारा डिवीज़न बेंच के निष्कर्ष पर आपत्ति
SLP में कहा गया कि वक़्फ़ पंजीकरण की वैधता हाईकोर्ट में लंबित अपीलों का मुद्दा ही नहीं था और न ही राज्य सरकार ने इस तरह की कोई घोषणा मांगी थी। वास्तविक प्रश्न केवल यह था कि राज्य सरकार किसी ऐसे मुद्दे पर आयोग नियुक्त कर सकती है या नहीं, जिसे वक़्फ़ ट्रिब्यूनल पहले से सुन रहा है।
याचिका में कहा गया कि हाईकोर्ट ने अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर जाकर 1950 के दस्तावेज़ की प्रकृति पर तथ्यात्मक निष्कर्ष दे दिए, जबकि वक़्फ़ या उपहार होने का निर्धारण सबूत और ट्रायल की मांग करता है, जो केवल वक़्फ़ ट्रिब्यूनल कर सकता है।
यह भी उल्लेख किया गया कि कोझिकोड वक़्फ़ ट्रिब्यूनल में उक्त भूमि को “मोहम्मद सिद्दीक सैत वक़्फ़” के रूप में रजिस्टर्ड करने के खिलाफ़ प्रक्रिया पहले से लंबित है। हाईकोर्ट की टिप्पणी इन लंबित कार्यवाहियों को पूर्वाग्रह से ग्रस्त कर देती है और ट्रिब्यूनल की वैधानिक शक्ति को निष्प्रभावी करती है।
याचिका में यह भी बताया गया कि परावूर उप-न्यायालय ने 1967 के एक वाद में पहले ही 1950 के दस्तावेज़ को वक़्फ़ माना था, जिसे 1973 में केरल हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था। फ़ारूक़ कॉलेज ने इसे कभी चुनौती नहीं दी, इसलिए यह निष्कर्ष अंतिम हो गया। इसे पुनः किसी कार्यकारी जांच से नहीं खोला जा सकता।
कमीशन ऑफ़ इंक्वायरी को 'समानांतर न्यायिक प्रक्रिया' बताया
याचिकाकर्ता ने आयोग की वैधता पर भी प्रश्न उठाया और कहा कि यह वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के समानांतर एक नया न्यायिक मंच तैयार कर देता है, जो कानूनन अस्वीकार्य है।
SLP में कहा गया कि आयोग को भूमि की “प्रकृति और सीमा” निर्धारित करने की अनुमति देना वक़्फ़ अधिनियम की धारा 83 और 85 की अवहेलना है, जो ट्रिब्यूनल के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी को इस मुद्दे में दखल की अनुमति नहीं देती।
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वह केरल हाईकोर्ट के डिवीज़न बेंच के आदेश को निरस्त करे और यह स्पष्ट करे कि भूमि की प्रकृति का निर्धारण केवल वक़्फ़ ट्रिब्यूनल द्वारा ही किया जा सकता है।

