अगर जूनियर जज केसों की सुनवाई छोड़ जिला जज परीक्षा पर ध्यान देंगे तो निचली न्यायपालिका संकट में पड़ जाएगी: सुप्रीम कोर्ट
Praveen Mishra
29 Oct 2025 10:07 AM IST

उच्च न्यायिक सेवा में वरिष्ठता और पदोन्नति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में सुनवाई शुरू
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मंगलवार को उच्च न्यायिक सेवा (Higher Judicial Service) में आपसी वरिष्ठता (inter-se seniority) और जिला जज पदों में पदोन्नति कोटा से जुड़े मुद्दों पर सुनवाई शुरू की। यह मामला उन निचली अदालत के न्यायिक अधिकारियों की पदोन्नति से जुड़ा है, जो सिविल जज (जूनियर डिवीजन) या न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में सेवा शुरू करते हैं और बाद में पदोन्नति के सीमित अवसरों के कारण कैरियर में ठहराव (stagnation) झेलते हैं।
इस मामले की सुनवाई चीफ़ जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस सूर्या कांत, विक्रम नाथ, के. विनोद चंद्रन तथा जॉयमल्या बागची की पाँच-जजों की पीठ कर रही है।
कोर्ट की चिंता
सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्या कांत ने हाल ही में आए फैसले Rejanish KV बनाम के. दीपा के असर पर चिंता जताई, जिसमें कहा गया था कि 7 साल का अनुभव रखने वाले न्यायिक अधिकारी जिला जज की सीधी भर्ती परीक्षा दे सकते हैं। जस्टिस कांत ने कहा कि इससे जूनियर अधिकारी मुकदमों पर ध्यान देने के बजाय परीक्षा की तैयारी पर अधिक फोकस कर सकते हैं, जिससे निचली अदालतों में संकट पैदा हो सकता है।
सीनियर एडवोकेट सिद्धार्थ भटनागर, जो इस मामले में amicus curiae हैं, ने भी सहमति जताई कि ऐसा सिस्टम न्यायिक कार्य की गुणवत्ता पर असर डाल सकता है, क्योंकि अधिकारी अपने एसीआर (वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट) की बजाय परीक्षा की तैयारी में लग जाएंगे।
उम्र और पदोन्नति में असमानता
भटनागर ने बताया कि बार से सीधे भर्ती होने वाले जिला जज आमतौर पर कम उम्र में सेवा में आते हैं, जबकि सिविल जज को पदोन्नति बहुत देर से मिलती है। उन्होंने जस्टिस शेट्टी आयोग रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि आंध्र प्रदेश में प्रमोट किए गए जिला जज की औसत उम्र 48 वर्ष, जबकि सीधे भर्ती जज की 39 वर्ष है। इसी तरह असम में 51 और 38 वर्ष, बिहार में 54 और 41 वर्ष का औसत अंतर है।
जस्टिस विनोद चंद्रन ने जोड़ा, “बिहार में किसी अधिकारी को जिला जज बनने में करीब 17 साल लगते हैं।”
सुझाव और बहस
भटनागर ने दो सुझाव दिए —
1. प्रवेश स्तर (entry level) पर कोई आरक्षण न हो, लेकिन “super-time scale” पदोन्नति में प्रमोट किए गए अधिकारियों को प्राथमिकता दी जाए।
2. 'Zone of consideration' बनाया जाए, यानी उदाहरण के लिए यदि 10 पद हैं, तो 30 उम्मीदवारों की सूची बने, जिनमें से आधे प्रमोटी और आधे डायरेक्ट रिक्रूट हों।
जस्टिस बागची ने इस पर सावधानी जताई कि ऐसा करने से “एक ही कैडर में दो अलग कैडर” बन जाएंगे और प्रणाली असमान हो सकती है।
अन्य पक्षों की दलीलें
सीनियर एडवोकेट विभा माखिजा, जो LDCE (Limited Departmental Competitive Exam) उम्मीदवारों की ओर से पेश हुईं, ने कहा कि यदि प्रमोशन कोटा तय किया गया, तो परीक्षा देने वाले अधिकारियों की वरिष्ठता और प्रोत्साहन प्रणाली प्रभावित होगी।
सीनियर एडवोकेट वी. गिरी (केरल हाईकोर्ट) ने कहा कि प्रधान जिला न्यायाधीश (Principal District Judge) के पद के लिए स्पष्ट नियम नहीं हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को ऐसे पदों के लिए वरिष्ठता और मेरिट दोनों को ध्यान में रखने वाले दिशा-निर्देश तय करने चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट्स और राज्य सरकारों से इस विषय पर राय मांगी थी। Amicus सिद्धार्थ भटनागर ने बताया था कि कई राज्यों में JMFC (Judicial Magistrate First Class) के रूप में भर्ती अधिकारी अपने पूरे करियर में Principal District Judge तक भी नहीं पहुँच पाते, जिससे कई योग्य लोग न्यायिक सेवा में आने से हिचकते हैं।
इस पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पदोन्नति और सीधे भर्ती — दोनों वर्गों के बीच संतुलन जरूरी है। इसी कारण यह मुद्दा अब संविधान पीठ को सौंपा गया है ताकि इसका स्थायी समाधान निकाला जा सके।
पीठ इस मामले पर कल आगे की सुनवाई करेगी।

