ट्रायल कोर्ट तमाशाई बनकर नहीं रह सकता: सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में मौत मामले में फिर से ट्रायल के उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश को सही ठहराया

LiveLaw News Network

20 Nov 2020 5:25 AM GMT

  • ट्रायल कोर्ट तमाशाई बनकर नहीं रह सकता: सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में मौत मामले में फिर से ट्रायल के उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश को सही ठहराया

    सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के उस फैसले की गुरुवार को पुष्टि की जिसमें उसने 2005 के हिरासत में मौत मामले की फिर से सुनवाई का आदेश दिया था।

    न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अभियुक्त व्यक्तियों की ओर से दायर विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) खारिज कर दी।

    यह मामला उत्तराखंड के राजस्व पुलिस अधिकारियों के हाथों वर्ष 2005 में राजू राम की हत्या से संबंधित है।

    अभियोजन पक्ष के केस के अनुसार, अभियुक्त अधिकारी पांच जनवरी, 2005 को राजू राम के घर पहुंचे थे और उसे बिस्तर से नीचे घसीटकर बाहर लाये थे। इतना ही नहीं, उसके ऊपर लातों एवं बेंत से प्रहार किये थे। बाद में, एक गहरे खड्ड से उसका मृत शरीर बरामद हुआ था।

    वर्ष 2008 में ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्य का अभाव बताकर सातों आरोपी अधिकारियों को बरी कर दिया था। मृतक की पत्नी (खीला देवी) ने आरोपियों को बरी किये जाने को चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दायर की थी।

    नौ जुलाई 2020 को हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति रवीन्द्र मैथानी की एकल पीठ ने बरी किये जाने के आदेश को दरकिनार करने एवं मामले में फिर से ट्रायल किये जाने की मांग संबंधी पुनर्विचार याचिका मंजूर कर ली थी।

    हाईकोर्ट ने कहा था कि चूंकि अभियुक्त की मौत पुलिस अधिकारियों की हिरासत में हुई थी, इसलिए उसकी मौत की परिस्थितियों की व्याख्या करने की जिम्मेदारी उन अधिकारियों की है।

    न्यायमूर्ति मैथानी ने कहा था,

    "शुरू में, अभियोजन पक्ष ने साबित किया था कि मृतक को आरोपी अधिकारियों द्वारा ले जाया गया था और उसकी हिरासत में मौत हो गयी थी। यहां साक्ष्य कानून की धारा 106 के इस्तेमाल की बात आती है। अभियुक्त अधिकारी चुप नहीं रह सकते। उन्हें स्पष्टीकरण देना होगा। उन्हें अदालत की संतुष्टि के लिए यह बताना आवश्यक था कि आखिर क्या हुआ था? उनलोगों ने (अभियुक्त के साथ) क्या किया? किसी भी अभियुक्त ने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया था। अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 313 के तहत पूछताछ के दौरान सभी ने कहा था कि उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया है। यहां तक कि आरोपी अधिकारियों ने यह भी स्वीकार नहीं किया था कि उन्होंने मृतक को गिरफ्तार किया था। आरोपी अधिकारी ही कोर्ट को सच्चाई बताने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे।"

    हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि ट्रायल कोर्ट ने इन पहलुओं की जांच नहीं की थी।

    जब हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सुनवाई के लिए आयी तो न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ ने इसकी सुनवाई के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा,

    "ट्रायल कोर्ट तमाशाई बना नहीं रह सकता। हाईकोर्ट ने बेहतरीन काम किया है। हम इसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे।"

    न्यायाधीश ने आगे कहा,

    "यदि ट्रायल शुरू नहीं हुआ होता तो हम इस मामले को सीबीआई को सौंप देते।"



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