ट्रायल कोर्ट पहले से तय आरोपों को केवल बदल सकता है या उनमें जोड़ सकता है, किसी आरोप को हटा नहीं सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट

Avanish Pathak

30 March 2023 10:48 AM GMT

  • ट्रायल कोर्ट पहले से तय आरोपों को केवल बदल सकता है या उनमें जोड़ सकता है, किसी आरोप को हटा नहीं सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने एक फैसले में माना कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 216 के तहत एक ट्रायल कोर्ट केवल आरोप को बदल सकता है या पहले से तय किए गए आरोप में जोड़ सकता है। अदालत ने कहा कि वह पहले से तय किए गए आरोप को हटा नहीं सकती है।

    ज‌स्टिस एस विश्वजीत शेट्टी की ‌सिंगल जज बेंच ने कहा,

    "यदि ट्रायल कोर्ट किसी ऐसे अपराध के लिए आरोप तय करता है, जिसे मुकदमे के दरमियान पर्याप्त सामग्री पेश करके अभियोजन पक्ष ने बनाया नहीं है तो अदालत अभियुक्त को उक्त अपराध के लिए बरी कर सकती है या अदालत अभियुक्त को कमतर अपराधों के लिए दंडित कर सकती है, हालांकि अंतिम निर्णय की घोषणा से पहले आरोप तय करने के बाद अदालत के पास अपनी ओर से तय किए गए किसी भी आरोप को हटाने की कोई शक्ति नहीं है।"

    मामले में कोर्ट ने एक महिला की याचिका को स्वीकार कर लिया और 16 जून 2022 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 376(2)(एफ) और पॉक्सो एक्ट धारा 4 और 6(एन) के तहत लगाए गए आरोपों को हटा दिया था।

    महिला ने अपने पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 498(ए), 354(ए), 354(सी), 376(2)(एफ) और पॉक्सो एक्ट की धारा 4 और 6(एन) के तहत दंडनीय अपराधों के लिए मामला दर्ज कराया था। पुलिस ने अपराधों के लिए चार्जशीट दायर की थी।

    आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत अर्जी दायर कर मामले में खुद को आरोप मुक्त करने की मांग की थी। हालांकि, अदालत ने उक्त आवेदन को खारिज कर दिया और उसके खिलाफ आरोप तय करने की कार्यवाही की।

    बाद में आरोपी ने धारा 216 सीआरपीसी के तहत एक आवेदन दायर कर गंभीर आरोपों को हटाने की मांग की। कोर्ट ने इसकी इजाजत दे दी, जिसके बाद शिकायतकर्ता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    उन्होंने यह तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 216 को पढ़ने से यह पता चलता है कि न्यायालय के पास अभियुक्त के खिलाफ आरोप तय होने के बाद किसी भी अपराध को हटाने की कोई शक्ति नहीं है।

    कोर्ट ने कहा,

    "सीआरपीसी की धारा 216 के तहत दायर आवेदन की अनुमति देकर, ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 376 (2) (एफ) और पोक्सो अधिनियम की धारा 4 और 6 (एन) के तहत दंडनीय अपराधों के लिए प्रतिवादी को बरी कर दिया है, जो वह सीआरपीसी की धारा 227 के तहत प्रतिवादी के आवेदन को खारिज करके नहीं कर सकती थी।"

    हालांकि, आरोपी ने यह कहते हुए याचिका का विरोध किया कि उसके द्वारा सीआरपीसी की धारा 227 के तहत दायर आवेदन पर आदेश पारित करते हुए, ट्रायल कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (2), और पॉक्सो एक्ट की धारा 4 (एफ) और और 6(एन) के तहत दंडनीय अपराधों में आगे बढ़ने के लिए कोई सामग्री नहीं है।

    कोर्ट ने कहा,

    "सीआरपीसी की धारा 216 के तहत एक आवेदन दायर करके, अभियुक्त ने आरोपों को तदनुसार बदलने की प्रार्थना की है और उसी पर विचार करते हुए, ट्रायल कोर्ट ने इसकी अनुमति दी है।"

    कोर्ट ने कहा कि आरोप तय करने में हुई त्रुटि को अभियुक्त सहित कोई भी कोर्ट के नोटिस में ला सकता है। पीठ ने पी कार्तिकलक्ष्मी बनाम श्री गणेश और अन्य के मामले में पारित सुप्रीम कोर्ट के फैसले और केंद्रीय जांच ब्यूरो बनाम गली जनार्दन रेड्डी के मामले में एक समन्वय पीठ के फैसले का उल्लेख किया।

    कोर्ट ने कहा,

    "सीआरपीसी की धारा 216 के तहत ट्रायल कोर्ट की शक्ति केवल आरोप को बदलने या पहले से तय किए गए आरोप में जोड़ने तक सीमित है। सीआरपीस की धारा 216 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करने की आड़ में ट्रायल कोर्ट एक आरोप को हटा नहीं सकता है, जो पहले ही तय किया जा चुका है।”

    बेंच ने इन्‍हीं टिप्‍पणियों के साथ याचिका को स्वीकार करते हुए कहा कि निचली अदालत को सीआरपीसी की धारा 216 के तहत अभियुक्त की ओर से दायर आवेदन को स्वीकार करने में गलती की।

    केस टाइटल: केएम और केसी और अन्य,

    केस नंबर: CRL.R.P. No. 919/2022

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