इमामों को वेतन पर सुप्रीम कोर्ट के 1993 के आदेश ने भारत के संविधान का उल्लंघन किया, एक गलत मिसाल कायम की: सीआईसी

Avanish Pathak

29 Nov 2022 10:19 AM GMT

  • इमामों को वेतन पर सुप्रीम कोर्ट के 1993 के आदेश ने भारत के संविधान का उल्लंघन किया, एक गलत मिसाल कायम की: सीआईसी

    केंद्रीय सूचना आयोग ने कहा कि ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य [मई 1993] में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय संविधान के खिलाफ था और इसने एक गलत मिसाल कायम की थी।

    उल्लेखनीय है कि ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन केस (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य वक्फ बोर्डों को उनकी ओर से संचालित मस्जिदों में कार्यरत इमामों को पारिश्रमिक देने का निर्देश दिया था।

    उल्लेखनीय है कि आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल ने एक आरटीआई आवेदन दायर कर दिल्ली सरकार और दिल्ली वक्फ बोर्ड द्वारा इमामों को दिए जाने वाले वेतन का विवरण मांगा था, जिसकी सुनवाई करते हुए सूचना आयुक्त उदय महुरकर ने शुक्रवार (25 नवंबर) को उक्त टिप्पणी की।

    दिल्ली वक्फ बोर्ड ने आरटीआई कार्यकर्ता को कोई उचित प्रतिक्रिया नहीं दी थी।

    आदेश में आयोग ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन किया है, जो कहते हैं कि करदाताओं के पैसे का उपयोग किसी विशेष धर्म के पक्ष में नहीं किया जाएगा।

    आदेश में कहा गया,

    "ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन और ... बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य" के मामले में 13 मई, 1993 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले, जिसने मस्जिदों में इमाम और मुअज्जिनों के लिए सार्वजनिक खजाने से विशेष वित्तीय लाभ के दरवाजे खोल दिए, के संबंध में आयोग ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को पारित करके संविधान के प्रावधानों, विशेष रूप से अनुच्छेद 27 का उल्लंघन किया, जो कहता है कि करदाताओं के पैसे का उपयोग किसी विशेष के पक्ष में नहीं किया जाएगा।"

    आदेश में आयोग ने यह भी कहा कि 1947 से पहले मुस्लिम समुदाय को विशेष लाभ देने की नीति ने मुसलमानों के एक वर्ग में पैन-इस्लामिक और विखंडन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो अंततः देश के विभाजन की ओर ले गई।

    आदेश में आगे कहा गया कि केवल मस्जिदों में इमामों और अन्य लोगों को वेतन देना, न केवल हिंदू समुदाय और अन्य गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक धर्मों के सदस्यों के साथ विश्वासघात करना है, बल्कि भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग के बीच पैन-इस्लामवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देना है जो पहले से ही दिखाई दे रहा है।

    सूचना आयुक्त उदय माहुरकर ने आगे कहा,

    "मुस्लिम समुदाय को विशेष धार्मिक लाभ देने जैसे कदम, जैसा कि वर्तमान मामले में उठाया गया है, वास्तव में अंतर्धार्मिक सद्भाव को गंभीर रूप से प्रभावित करता है क्योंकि वे अति-राष्ट्रवादी आबादी के एक वर्ग से मुसलमानों के लिए अवमानना ​​​​को आमंत्रित करते हैं।"

    दिल्ली वक्फ बोर्ड के मामले से निपटते हुए आयोग ने आदेश में कहा कि दिल्ली सरकार बोर्ड को सालाना 62 करोड़ रुपये देती है, जबकि स्वतंत्र स्रोतों से उसकी खुद की मासिक आय करीब 30 लाख रुपये महीना है।

    आयोग ने कहा,

    "तो दिल्ली में दिल्‍ली वक्फ बोर्ड की मस्जिदों के इमामों और मुअज्जिनों को दिए जा रहे 18,000 रुपये और 16,000 रुपये का मासिक मानदेय दिल्ली सरकार द्वारा करदाताओं के पैसे से दिया जा रहा है, जो अपीलकर्ता की ओर से दिए गए उदाहरण के विपरीत है, जिसमें एक हिंदू मंदिर के पुजारी को उक्त मंदिर को नियंत्रित करने वाले ट्रस्ट से प्रति माह 2,000 रुपये की मामूली राशि मिल रही है।"

    अंत में, इस मामले को राष्ट्र की एकता और अखंडता और पारस्परिक सद्भाव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पाते हुए, आयोग ने अपनी रजिस्ट्री को आदेश की एक प्रति आयोग की सिफारिश के साथ केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने का निर्देश दिया ताकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक के प्रावधानों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त कार्रवाई की जा सके।

    आदेश में आयोग ने दिल्ली वक्फ बोर्ड को आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल को मुआवजा देने का भी आदेश दिया है क्योंकि उन्होंने अपनी याचिका का जवाब मांगने में समय और संसाधन खर्च किए।

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