फेयर रेंट आदेश पर स्टे न होने पर अपील लंबित होने का बहाना बनाकर किराया नहीं टाल सकता किरायेदार: सुप्रीम कोर्ट

Praveen Mishra

13 Nov 2025 3:52 PM IST

  • फेयर रेंट आदेश पर स्टे न होने पर अपील लंबित होने का बहाना बनाकर किराया नहीं टाल सकता किरायेदार: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई किरायेदार “फेयर रेंट” (उचित किराया) निर्धारण को चुनौती देता है लेकिन उस आदेश पर स्थगन (स्टे) नहीं लेता, तो अपील लंबित होने का हवाला देकर किराया न देने या बेदखली से बचने का दावा नहीं कर सकता। कोर्ट ने किराया न देने को “जानबूझकर चूक” (wilful default) मानते हुए किरायेदार की बेदखली को बरकरार रखा।

    जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने कहा कि “सिर्फ अपील दायर कर देने से आदेश पर स्वतः स्टे लागू नहीं हो जाता,” जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 41 नियम 5 में प्रावधान है। खंडपीठ ने 2011 के Girdharilal Chandak & Bros. v. Mehdi Ispahani फैसले का हवाला देते हुए कहा कि यदि कोई पक्ष स्टे नहीं लेता, तो इसका मतलब यह हो सकता है कि वह आदेश का पालन करने को तैयार है या फिर उसे आदेश के क्रियान्वयन पर कोई आपत्ति नहीं।

    मामले की पृष्ठभूमि

    कोयंबटूर स्थित एक कमर्शियल गोदाम का किराये को लेकर विवाद 2005 से चल रहा था। मकान मालिक किराया ₹48,000 प्रति माह बताता था जबकि किरायेदार ₹33,000 कह रहा था। 10 जनवरी 2007 को रेंट कंट्रोलर ने फेयर रेंट ₹2,43,600 प्रति माह तय किया, जिसे किरायेदार ने अपील के जरिए चुनौती तो दी, लेकिन उस आदेश पर स्टे नहीं लिया। इसके बावजूद वह तय किराये का सिर्फ एक हिस्सा ही देता रहा।

    अपील प्राधिकरण और मद्रास हाईकोर्ट ने भी फेयर रेंट आदेश को बरकरार रखा, लेकिन किरायेदार ने 1.22 करोड़ रुपये से अधिक बकाया 2013 तक नहीं चुकाया—यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में उसकी याचिका भी खारिज कर दी थी। इसके बाद मकान मालिक ने 'जानबूझकर चूक' के आधार पर बेदखली की मांग की।

    रेंट कंट्रोलर ने पहले याचिका खारिज कर दी, लेकिन अपील प्राधिकरण ने 2020 में बेदखली का आदेश दिया। हाईकोर्ट ने इस निर्णय को सही ठहराया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।

    सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किरायेदार ने फेयर रेंट आदेश पर कभी भी स्टे नहीं लिया, इसलिए उसे आदेश का पालन करना था। कोर्ट ने माना कि लंबे समय तक किराया न देना और बकाया जोड़ते जाना “जानबूझकर चूक” है।

    जस्टिस दत्ता द्वारा लिखे फैसले में कहा गया:

    “भुगतान देर से और लम्बी मुकदमेबाजी के बाद किया गया। यह आचरण bona fide संदेह नहीं दर्शाता। किरायेदार की चूक स्पष्ट रूप से जानबूझकर है।”

    'न्यायिक अंतिमता' का सिद्धांत यहां लागू नहीं

    किरायेदार की यह दलील कि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित था इसलिए वह विलफुल डिफॉल्टर नहीं हो सकता, कोर्ट ने खारिज कर दी।

    कोर्ट ने कहा कि जब तक किसी आदेश पर स्टे नहीं लिया जाता, उसका संचालन जारी रहता है और किराया देय माना जाता है। मुकदमेबाजी लंबित होने का बहाना बनाना उचित नहीं।

    कोर्ट ने कहा, “यदि कोई पक्ष आदेश को चुनौती देता है लेकिन स्टे नहीं लेता, तो वह न्यायिक निर्धारण के लाभ से दूसरे पक्ष को वंचित नहीं कर सकता।”

    नतीजा

    सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज कर दी और किरायेदार की बेदखली को सही ठहराया, यह कहते हुए कि उसने वर्षों तक किराया न देकर जानबूझकर चूक की है।

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