सुप्रीम कोर्ट ने वन भूमि पर सेब के बागों को काटने के हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश पर लगाई रोक
Shahadat
29 July 2025 10:17 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें वन भूमि पर लगे सेब के बागों को काटने का निर्देश दिया गया था। न्यायालय ने राज्य सरकार को सेबों की नीलामी करने की भी अनुमति दी।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस एनवी अंजारिया की बेंच हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें स्वतः संज्ञान लेते हुए वन विभाग को पूर्व में अतिक्रमण की गई वन भूमि से फलदार सेब के बागों को हटाने और देशी वन प्रजातियों के पौधे लगाने का निर्देश दिया गया था।
हाईकोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि वर्तमान सेब के पेड़ों को हटाने की लागत अतिक्रमणकारियों से भू-राजस्व के बकाया के रूप में वसूल की जाए।
बेंच ने मामले में नोटिस जारी करने पर सहमति व्यक्त की और विवादित आदेश के आवेदन पर रोक लगा दी। न्यायालय ने राज्य सरकार को सेबों की नीलामी की भी अनुमति दी।
शिमला नगर निगम के पूर्व उप-महापौर टिकेंद्र सिंह पंवार और एडवोकेट राजीव राय द्वारा दायर वर्तमान याचिका में कहा गया कि यह आदेश पर्यावरणीय सिद्धांतों की अनदेखी करता है और मनमाना है, जिससे कई किसानों की आजीविका को खतरा है।
सीनियर एडवोकेट पीवी दिनेश याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए। हिमाचल प्रदेश राज्य के ए़डवोकेट जनरल अशोक कुमार ने राज्य की ओर से नोटिस स्वीकार किया।
याचिका में कहा गया कि मानसून के मौसम में सेब के पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई से भूस्खलन और पारिस्थितिक तंत्र के बिगड़ने की संभावना बढ़ जाएगी। यह आदेश उन कई किसानों के लिए भी खतरा पैदा करता है, जिनकी आजीविका बागबानी पर निर्भर है।
कोर्ट ने कहा,
"इस तरह के बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई, खासकर मानसून के मौसम में, हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन और मृदा अपरदन के जोखिम को काफी बढ़ा देती है, जो अपनी भूकंपीय गतिविधि और पारिस्थितिक संवेदनशीलता के लिए जाना जाता है। सेब के बाग केवल अतिक्रमण न होकर मृदा स्थिरता में योगदान करते हैं, स्थानीय वन्यजीवों के लिए आवास प्रदान करते हैं और राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, जो हजारों किसानों की आजीविका का आधार हैं। इन बागों के विनाश से न केवल पर्यावरणीय स्थिरता को खतरा है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त आजीविका के मौलिक अधिकार को भी खतरा है, जैसा कि ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985) और कर्नाटक राज्य बनाम नरसिंहमूर्ति (1995) जैसे न्यायिक उदाहरणों में पुष्टि की गई है।"
चूंकि हाईकोर्ट ने किसी भी पर्यावरणीय प्रभाव आकलन पर विचार किए बिना आदेश दिया, इसलिए याचिका में कहा गया कि इसने "एहतियाती सिद्धांत, जो वेल्लोर नागरिक कल्याण मंच बनाम भारत संघ (1996) में स्थापित पर्यावरणीय न्यायशास्त्र की आधारशिला है, का उल्लंघन किया।"
Case Details : Tikender Singh Panwar & Anr v. State of Himachal Pradesh & Ors | Diary No. 40056/2025

