सुप्रीम कोर्ट ने ग्राम न्यायालय स्थापित करने की मांग वाली याचिका पर हाईकोर्ट से मांगा जवाब

Shahadat

15 Nov 2022 5:20 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने ग्राम न्यायालय स्थापित करने की मांग वाली याचिका पर हाईकोर्ट से मांगा जवाब

    सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उस याचिका में सभी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरलों को नोटिस जारी किया, जिसमें राज्यों को ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अनुसार "ग्राम न्यायालय" स्थापित करने के लिए निर्देश देने की मांग की गई।

    जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस वी रामासुब्रमण्यन की खंडपीठ ने इस मामले में हाईकोर्टो को प्रतिवादी के रूप में जोड़ा, यह देखते हुए कि मामले के निर्णय के लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक है।

    पीठ नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीज फॉर फास्ट जस्टिस द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें ग्राम न्यायालय अधिनियम को लागू करने की मांग की गई। याचिकाकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट प्रशांत भूषण ने प्रस्तुत किया कि यद्यपि अधिनियम लगभग 14 साल पहले पारित किया गया है, कई राज्यों ने एक भी ग्राम न्यायालय की स्थापना नहीं की है।

    उन्होंने समझाया कि अधिनियम में ग्रामीण अदालतों की स्थापना की परिकल्पना की गई है, जो निर्दिष्ट प्रकृति के छोटे मामलों का फैसला करने के लिए सीपीसी और सीआरपीसी की कठोर प्रक्रिया से बाध्य नहीं होगी।

    भूषण ने खंडपीठ को बताया कि केंद्र सरकार ने यह स्टैंड लिया कि राज्यों द्वारा ग्राम न्यायालयों की स्थापना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि अधिनियम "करेगा" के बजाय "हो सकता है" शब्द का उपयोग करता है। उन्होंने तर्क दिया कि न्यायालय ने कुछ स्थितियों में "हो सकता है" का अर्थ "करेगा" की व्याख्या की है। चूंकि न्याय तक पहुंच एक मौलिक अधिकार है, ग्राम न्यायालयों के संदर्भ में "हो सकता है" की व्याख्या "करेगा" के रूप में की जानी चाहिए।

    भूषण ने तर्क दिया,

    "देश की 50% से अधिक आबादी वकीलों का खर्च वहन नहीं कर सकती और नियमित अदालतों से संपर्क नहीं कर सकती है। यही कारण है कि छोटे मामलों के तेजी से फैसले के लिए ग्रामीण स्तर पर अदालतों के लिए यह अधिनियम बनाया गया। न्याय तक पहुंच मौलिक अधिकार है, इसलिए "हो सकता है", "करेगा" के रूप में समझा जाना चाहिए।

    उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और केरल जैसे बहुत कम राज्यों ने अधिनियम को लागू किया।

    पीठ ने पूछा कि क्या कोई राज्य ग्राम न्यायालयों की स्थापना का विरोध करता है। भूषण ने जवाब दिया कि हाईकोर्ट की सिफारिश के बावजूद हिमाचल प्रदेश सरकार विरोध कर रही है। उन्होंने कहा कि बिहार और झारखंड जैसे राज्य भी इसका विरोध कर रहे हैं। तमिलनाडु ने अभी तक एक भी ग्राम न्यायालय स्थापित नहीं किया।

    झारखंड के एडिशनल एडवोकेट जनरल, सीनियर एडवोकेट तपेश कुमार सिंह ने प्रस्तुत किया कि अधिनियम अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित कानूनों के साथ संघर्ष पैदा करता है, इसलिए राज्य सरकार इसे लागू नहीं कर रही है।

    उन्होंने बताया कि अधिनियम ने अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में उत्तर पूर्वी राज्यों को छूट दी है। उन्होंने आगे कहा कि हाईकोर्ट मामलों में आवश्यक पक्षकार हैं, क्योंकि नियमों और नियुक्तियों का निर्धारण हाईकोर्टो के परामर्श से राज्यों द्वारा किया जाना है।

    पीठ ने तब मामले में पक्षकारों के रूप में हाईकोर्टो को जोड़ने का फैसला किया। पीठ ने यह भी कहा कि वह यूपी जैसे राज्यों को निर्देश देगी, जिन्होंने ग्राम अदालतें स्थापित की हैं, वे अपने अनुभवों को साझा करते हुए हलफनामा दाखिल करें।

    केस टाइटल: नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीज फॉर फास्ट जस्टिस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य | डब्ल्यूपी (सी) नंबर 1067/2019

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