सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा फोटो हलफनामे के लिए व्यक्तिगत उपस्थिति की अनिवार्यता के खिलाफ याचिका खारिज की
Shahadat
18 July 2025 4:41 AM

सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की उस प्रशासनिक अनिवार्यता को चुनौती देने वाली रिट याचिका खारिज की, जिसके तहत वादियों को फोटो हलफनामा जारी करने के लिए हाईकोर्ट में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना अनिवार्य है।
याचिकाकर्ता ने व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर आरोप लगाया कि यह अनिवार्यता मनमानी है। इसमें वैधानिक आधार का अभाव है और यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन करती है।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने हाईकोर्ट के प्रशासनिक फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामले जो हाईकोर्ट के प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र में आते हैं, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत न्यायनिर्णयन के लिए उपयुक्त नहीं हैं। हालांकि, इसने याचिकाकर्ता को कानून के अनुसार हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के समक्ष अभ्यावेदन दायर करने की स्वतंत्रता प्रदान की।
न्यायालय ने कहा,
"हमारा मानना है कि हाईकोर्ट द्वारा अपने प्रशासनिक पक्ष में लिए गए ऐसे प्रशासनिक निर्णयों में इस न्यायालय को भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत याचिका में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि याचिकाकर्ता इस संबंध में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को संबोधित एक अभ्यावेदन दायर करना चाहता है तो वह कानून के अनुसार ऐसा कर सकता है।"
याचिकाकर्ता के अनुसार, किसी भी बेईमान वादी द्वारा झूठा हलफनामा दायर न करने की प्रक्रिया में अन्य निर्दोष वादियों को अनावश्यक रूप से परेशान किया जा रहा है।
याचिकाकर्ता ने अभिसाक्षी के स्थानीय क्षेत्राधिकार में नोटरी या मजिस्ट्रेट द्वारा सत्यापित हलफनामों को स्वीकार करने, या आधार-आधारित प्रमाणीकरण, डिजिटल हस्ताक्षर, या वीडियो सत्यापन जैसी दूरस्थ या डिजिटल सत्यापन विधियों की अनुमति देने के लिए निर्देश देने की भी मांग की थी। उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को सुप्रीम कोर्ट की ई-समिति के साथ समन्वय में एक समान डिजिटल हलफनामा सत्यापन दिशानिर्देश तैयार करने का निर्देश देने की भी मांग की थी।
इस वर्ष की शुरुआत में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी हाईकोर्ट की हलफनामे संबंधी आवश्यकताओं की प्रक्रिया पर सवाल उठाया था। 19 मई को हाईकोर्ट के जस्टिस पंकज भाटिया ने अंतरिम आदेश पारित किया, जिसमें निर्देश दिया गया कि इलाहाबाद और लखनऊ बार एसोसिएशनों द्वारा वादियों से फोटो पहचान पत्र के लिए ₹500 नहीं लिए जाने चाहिए। न्यायालय ने कहा कि ऐसे शुल्क बिना किसी कानूनी अनुमति के लगाए जा रहे हैं और पूरी तरह से बार एसोसिएशनों के प्रस्तावों पर आधारित हैं।
हाईकोर्ट ने कहा कि डिजिटल इंडिया के युग में वादियों को केवल फोटो पहचान पत्र के लिए दूर-दराज से आना प्रतिगामी प्रथा है। न्यायालय ने कहा कि यह प्रक्रिया व्यावहारिक कठिनाई पैदा कर रही है और न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने के उद्देश्य के विपरीत है। हाईकोर्ट ने कहा कि पूर्व के स्थगन आदेशों के बावजूद, दोनों पीठों के फोटो हलफनामा केंद्रों पर ₹500 का शुल्क वसूला जाता रहा।
जस्टिस भाटिया ने निर्देश दिया कि रजिस्ट्री को नोटरी अधिनियम, 1952 के तहत देश में कहीं भी नियुक्त नोटरी पब्लिक के समक्ष दिए गए शपथपत्रों को स्वीकार करना चाहिए। स्पष्ट किया कि ये वैध हलफनामे हैं। उन्होंने यह भी आदेश दिया कि रजिस्ट्री के स्टाम्प रिपोर्टिंग अनुभाग द्वारा ऐसे दाखिलों को अस्वीकार या दोषपूर्ण नहीं माना जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट की वेबसाइट पर प्रकाशित 272 प्रकार के दाखिल दोषों की सूची में कोई कानूनी बल नहीं है। यह वैध दाखिलों को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकता।
हाईकोर्ट ने पहले भी चिंता जताई थी जब याचिकाकर्ता ने फोटो पहचान पत्र के लिए यात्रा करने में असमर्थता के कारण पूरक हलफनामा दाखिल करने के लिए समय मांगा था। न्यायालय ने पूछा कि हलफनामे पर शपथपत्र शपथपत्रकर्ता के निवास स्थान पर नोटरी के समक्ष शपथ क्यों नहीं दिलाई जा सकती। हालांकि नोटरी अधिनियम के तहत कोई प्रतिबंध नहीं है। फिर भी रजिस्ट्री कथित तौर पर इलाहाबाद हाईकोर्ट नियमों के अध्याय IV के तहत नियुक्त शपथ आयुक्तों के समक्ष ही शपथपत्र देने पर ज़ोर दे रही थी।
जस्टिस भाटिया ने बताया कि नियम रजिस्ट्री को नोटरी के समक्ष शपथपत्र देने से इनकार करने का अधिकार नहीं देते हैं। साथ ही कहा कि वादियों को निर्दिष्ट केंद्रों पर उपस्थित होने के लिए मजबूर करना नियमों के तहत प्रदत्त अधिकारों से परे है। हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि प्रशासनिक प्रस्ताव और कार्यालय ज्ञापन में फोटो हलफनामे का शुल्क ₹70 निर्धारित किया गया। बाद में इसे संशोधित कर ₹125 कर दिया गया, फिर भी अतिरिक्त ₹400 वसूले जा रहे थे, जो कथित तौर पर फोटो हलफनामा केंद्रों के वकीलों के खाते में जमा किए जा रहे थे। न्यायालय ने इस वसूली को प्रथम दृष्टया संविधान के अनुच्छेद 265 के विपरीत माना।
न्यायालय ने निर्देश दिया कि स्वीकृत शुल्क से अधिक राशि वसूलने वाला कोई भी व्यक्ति या संस्था व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा और उसे अवमानना कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है।
हाईकोर्ट ने अन्य न्यायालयों, जैसे केरल हाईकोर्ट की ईमेल और ओटीपी-आधारित सत्यापन प्रणाली, द्वारा उठाए गए कदमों पर भी ध्यान दिया और निर्देश दिया कि इसी तरह के सुधारों पर विचार के लिए उसके आदेश को चीफ जस्टिस के समक्ष रखा जाए।
Case Title – Biswajit Chowdhury v. Registrar General, Hon'ble High Court of Allahabad & Anr.