सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आपराधिक अपीलों के लंबित रहने पर स्वतः संज्ञान लिया

LiveLaw News Network

5 Oct 2021 7:18 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आपराधिक अपीलों के लंबित रहने पर स्वतः संज्ञान लिया

    सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आपराधिक अपीलों के लंबे समय से लंबित रहने के मुद्दे पर स्वतः संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज किया। अदालत उन दोषियों को जमानत देने के संबंध में दिशा-निर्देश देने पर विचार कर रही है, जो अपनी आपराधिक अपीलों की सुनवाई में देरी के कारण लंबे समय तक सजा काट चुके हैं।

    न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश की पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा हलफनामे में दिए गए सुझावों को "बोझिल" बताते हुए स्वत: संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज करने का आदेश दिया।

    पीठ ने पहले इस मुद्दे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय से जवाब मांगा था जब वो एक दोषी द्वारा दायर सजा को निलंबित करने की मांग वाली याचिका पर विचार कर रही थी।

    पीठ ने कहा था कि कई दोषी सजा को निलंबित करने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं क्योंकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में आपराधिक अपीलों पर सुनवाई नहीं हो रही है।

    उसके बाद, उच्च न्यायालय और उत्तर प्रदेश राज्य दोनों ने आपराधिक अपीलों की शीघ्र सुनवाई के लिए सुझाव देते हुए हलफनामा दायर किया।

    सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा,

    "उच्च न्यायालय द्वारा हलफनामा दायर किया गया है जहां वे सरकार द्वारा जमानत के मानदंड के रूप में सूचीबद्ध प्रस्तावों से सहमत हैं। हमने हलफनामे का अध्ययन किया है और हमारे विचार में सुझाव अधिक बोझिल हैं। यदि अपील उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है और यदि व्यक्ति को 8 साल हो गए हैं, तो ज्यादातर मामलों में जमानत दी जानी चाहिए, इसके बावजूद कि मामला सामने नहीं आ रहा है। ऐसे अपराधी हो सकते हैं जो जमानत आवेदनों को स्थानांतरित करने के लिए कानूनी सहायता तक पहुंच का अनुरोध करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। उच्च न्यायालय को उन मामलों का पता लगाना चाहिए जहां आरोपी को 8 साल की सजा हुई है, उसे जमानत देने पर विचार किया जा सकता है।"

    आदेश में आगे कहा गया,

    "हम उस परिदृश्य से भी अवगत हैं जहां अपील सुनवाई के लिए आती है और अपीलकर्ता बहस करने के बजाय स्थगन की मांग कर सकता है। यह निश्चित रूप से जमानत देने का मामला नहीं होगा जहां अदालत को योग्यता से निपटना है। हम इस विचार से भी हैं कि दोषी को पहले उच्च न्यायालय पहुंचना चाहिए क्योंकि यह अदालत पहले से ही बोझ में है। लेकिन एक तंत्र होना चाहिए कि यदि आरोपी वहां पहुंचता है, तो अपील को तुरंत सुना जाना चाहिए।"

    पीठ ने कहा कि एक तंत्र होना चाहिए कि यदि आरोपी वहां पहुंचता है, तो अपील पर तुरंत सुनवाई की जानी चाहिए।

    इसलिए पीठ ने उच्च न्यायालय को इस संबंध में उच्चतम न्यायालय के समक्ष 4 सप्ताह के भीतर एक नीति रखने का निर्देश जारी किया है।

    पीठ ने सुझाव दिया कि आजीवन कारावास के मामलों में जहां दोषी आधी सजा काट चुका है, जमानत देने पर विचार किया जा सकता है।

    अदालत ने कहा,

    "हम ध्यान दे रहे हैं कि आजीवन कारावास के मामलों में दोषी कैदी हो सकते हैं और ऐसे मामलों में जब 50 प्रतिशत सजा हो जाती है तो यह जमानत देने का आधार हो सकता है। हम उच्च न्यायालय को इस संबद्ध में नीति पेश करने के लिए 4 सप्ताह का समय देते हैं।"

    पीठ ने आदेश दिया,

    "मामलों को तुरंत हाईकोर्ट के समक्ष रखा जाना चाहिए ताकि उनके मामलों पर तुरंत सुनवाई हो। आगे के पहलुओं को सुविधाजनक बनाने के लिए, आगे के निर्देशों के लिए अदालत के सामने एक अलग स्वत: संज्ञान याचिका सूचीबद्ध की जा सकती है। रजिस्ट्री स्वत: संज्ञान कार्यवाही दर्ज करे और इसे 16 नवंबर, 2021 को अदालत के समक्ष रखे। "

    उत्तर प्रदेश राज्य ने प्रस्तुत अपने नोट में दो व्यापक मानदंड निर्धारित किए हैं जिन्हें जमानत याचिका पर विचार करते समय ध्यान में रखा जा सकता है:

    • वास्तविक कारावास की कुल अवधि

    • आपराधिक अपील के लम्बित रहने की अवधि

    ऐसी श्रेणी में निम्नलिखित सुझाव दिए गए हैं:

    • अपराध की जघन्य प्रकृति

    • पिछला आचरण और आपराधिक इतिहास- जमानत जांच

    • अपील को आगे बढ़ाने में जानबूझकर देरी

    • अपीलकर्ता-दोषी द्वारा

    प्रथम दृष्टया उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना

    हाईकोर्ट ने सरकार के सुझावों को स्वीकार करते हुए हलफनामा दाखिल किया।

    सुप्रीम कोर्ट ने आज पूछा कि क्या विवेक लगाने के बाद सुझावों को मंजूरी दी गई है।

    न्यायमूर्ति कौल ने उच्च न्यायालय के लिए पेश हुए वकील यशवर्धन से पूछा,

    "मुझे नहीं पता कि सुझावों पर कितना विवेक लगाया गया है। यहां हम उन लोगों से निपट रहे हैं जो जेल में बंद हैं और उनकी आपराधिक अपील सूचीबद्ध नहीं है। जमानत का मामला आने में कितना समय लगता है?"

    न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि राज्य के सुझाव बहुत व्यापक हैं और अगर उन्हें स्वीकार कर लिया जाता है, तो प्रक्रिया "बोझिल" हो जाएगी।

    न्यायमूर्ति सुंदरेश ने टिप्पणी की,

    "एक उच्च न्यायालय के रूप में आपको इसका ध्यान रखना होगा। इससे आपकी भूमिका प्रभावित होगी। आपके पास एक या दो और बेंच हो सकते हैं और निलंबन से संबंधित बैकलॉग को साफ़ कर सकते हैं। हम निलंबन के आवेदनों को अधिक समय तक लंबित नहीं रख सकते हैं। यह अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा और उच्च न्यायालय राहत में कटौती करेगा।"

    न्यायमूर्ति कौल ने कहा,

    "हमारी आशंका यह है कि एएजी (अतिरिक्त महाधिवक्ता) द्वारा दिए गए सुझाव अधिक बोझिल हैं। यह राज्य का दृष्टिकोण है। हत्या की सभी अपील जहां लोगों को 8 साल हो चुके हैं और अपील लंबित है, आपको इसे पहले लेना चाहिए। दोनों राज्य और हाईकोर्ट को यह देखना चाहिए कि उन सभी मामलों को पहले उठाया जाना चाहिए। समस्या देश की नहीं है। यह समस्या कुछ राज्यों और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लिए अधिक विशिष्ट है। ये आपकी दिक्कत है। ये सारे मामले आपके हाईकोर्ट से आ रहे हैं। आप समाधान नहीं दे रहे हैं जबकि आप कहते हैं कि आप सरकार के सुझावों को स्वीकार कर रहे हैं।"

    न्यायमूर्ति कौल ने आगे कहा,

    "ये सुझाव अदालत के लिए स्वीकार करने के लिए बहुत बोझिल हैं। किसी को विवेक लगाना होगा।"

    हाईकोर्ट के वकील ने कहा कि वह बेंच के सवालों और टिप्पणियों पर निर्देश लेंगे।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता विराज आर दातार ने कहा कि उच्च न्यायालय और सरकार के सुझाव व्यवहार्य नहीं हैं।

    यूपी सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद पेश हुईं।

    (रिपोर्ट मौखिक सुनवाई और अदालत में लिखाए गए आदेश पर आधारित है। आदेश अपलोड होने के बाद इसे अपेडट किया जाएगा) ।

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