सुप्रीम कोर्ट ने पति और ससुराल वालों के खिलाफ IPC की धारा 498ए के तहत मामला खारिज किया, कानून के दुरुपयोग के खिलाफ चेताया

Shahadat

10 Jun 2025 7:57 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने पति और ससुराल वालों के खिलाफ IPC की धारा 498ए के तहत मामला खारिज किया, कानून के दुरुपयोग के खिलाफ चेताया

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में भारतीय दंड संहिता की (IPC) धारा 498ए (पत्नी के प्रति घरेलू क्रूरता) के तहत अपराध के लिए पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ दायर FIR और आरोपपत्र को खारिज कर दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि विशिष्टता की कमी वाले सामान्य आरोपों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

    जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने घनश्याम सोनी बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) और अन्य [2025 आईएनएससी 803] में फैसला सुनाया, जिसमें क्रूरता के वास्तविक पीड़ितों की रक्षा करने की आवश्यकता को दोहराते हुए कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग के खिलाफ चेतावनी दी गई।

    मामले की पृष्ठभूमि

    शिकायतकर्ता दिल्ली पुलिस की सब-इंस्पेक्टर ने 1998 में घनश्याम सोनी से विवाह किया था। उसने आरोप लगाया कि विवाह के तुरंत बाद उसके पति और उसके परिवार, जिसमें उसकी माँ और पाँच भाभियां शामिल हैं, उन्होंने दहेज के रूप में ₹1.5 लाख, एक कार और एक अलग घर की माँग की। साथ ही उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया। आरोपों में चाकू से धमकाना और गर्भावस्था के दौरान शारीरिक हमला करना शामिल है। उसने शुरू में 03.07.2002 को शिकायत दर्ज की, जिसके परिणामस्वरूप 19.12.2002 को पुलिस स्टेशन मालवीय नगर, दिल्ली में IPC की धारा 498A, 406 और 34 के तहत FIR नंबर 1098/2002 दर्ज की गई। मजिस्ट्रेट ने 27.07.2004 को संज्ञान लिया।

    सेशन कोर्ट ने दिनांक 04.10.2008 के आदेश द्वारा सभी आरोपियों को इस आधार पर बरी कर दिया कि आरोपों की समय-सीमा समाप्त हो चुकी थी, क्योंकि वे 1999 की घटनाओं से संबंधित थे। अप्रैल 2024 में हाईकोर्ट ने उस आदेश को पलट दिया, आरोपों को बहाल कर दिया, जिसके कारण आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    न्यायालय के निष्कर्ष

    खंडपीठ ने पाया कि सास और पांच ननदों के खिलाफ आरोप अस्पष्ट और सामान्य हैं, जिनमें व्यक्तिगत कृत्यों या घटनाओं का विशिष्ट विवरण नहीं है। के. सुब्बा राव बनाम तेलंगाना राज्य (2018) 14 एससीसी 452 का हवाला देते हुए न्यायालय ने जोर देकर कहा कि केवल सर्वव्यापी आरोपों के आधार पर दूर के रिश्तेदारों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

    न्यायालय ने नोट किया कि शारीरिक क्रूरता और दहेज की मांग के गंभीर आरोपों के बावजूद, शिकायतकर्ता मेडिकल रिकॉर्ड, चोट की रिपोर्ट या गवाह के बयान पेश करने में विफल रही। शिकायतकर्ता ने पहले की शिकायत भी वापस ले ली थी, जिससे उसके दावों की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा हो गया।

    न्यायालय ने कहा,

    "यदि अभियोजन पक्ष के आरोपों और मामले को उसके वास्तविक रूप में लिया जाए तो भी बिना किसी समय, तिथि या स्थान के स्पष्ट आरोपों के अलावा अभियोजन पक्ष या शिकायतकर्ता द्वारा IPC की धारा 498ए के तहत "क्रूरता" के तत्वों को प्रमाणित करने के लिए कोई भी दोषपूर्ण सामग्री नहीं पाई गई।"

    यह स्वीकार करते हुए कि एक पुलिस अधिकारी भी क्रूरता का शिकार हो सकता है, न्यायालय ने परिवार के सदस्यों को परेशान करने के लिए आपराधिक कानून के प्रावधानों के दुरुपयोग के खिलाफ चेतावनी दी। इसने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए, विशेष रूप से दूर के रिश्तेदारों के खिलाफ अंधाधुंध अभियोजन से बचना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिकायतकर्ता ने राज्य का अधिकारी होने के नाते इस तरह से आपराधिक तंत्र शुरू किया, जहां वृद्ध सास-ससुर, पांच बहनों और एक दर्जी को आरोपी बनाया गया। क्रूरता के आरोपों के पीछे सच्चाई की संभावना के बावजूद, कानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करने की इस बढ़ती प्रवृत्ति की इस न्यायालय द्वारा बार-बार निंदा की गई। दारा लक्ष्मी नारायण और अन्य बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य में हाल ही में दिए गए फैसले में की गई टिप्पणी को देखते हुए मामले में इस प्रावधान के दुरुपयोग का हवाला दिया गया।

    न्यायालय का निर्णय

    संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने FIR नंबर 1098/2002 और दिनांक 27.07.2004 का आरोपपत्र रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया कि विशिष्ट आरोपों और साक्ष्यों की कमी के कारण मुकदमे को आगे बढ़ाना दमनकारी और अन्यायपूर्ण होगा।

    न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि यद्यपि शिकायत समय-सीमा के भीतर दायर की गई, लेकिन आरोप इतने अस्पष्ट और अप्रमाणित थे कि आपराधिक मुकदमे को उचित नहीं ठहराया जा सकता। खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि वास्तविक पीड़ितों की सुरक्षा और आधारहीन अभियोजन के माध्यम से अभियुक्तों को परेशान करने से रोकने के बीच संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए।

    Case Title: Ghanshyam Soni v. State (Govt. of NCT of Delhi) & Anr.

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