₹52.5 करोड़ लोन फ्रॉड मामला: सुप्रीम कोर्ट ने कहा आर्थिक अपराध समाज को प्रभावित करते हैं, आपराधिक कार्यवाही बहाल
Praveen Mishra
9 Dec 2025 12:31 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक अपराधों को “सार्वजनिक हित के लिए गंभीर खतरा” बताते हुए M/s Sarvodaya Highways Ltd. और उसके निदेशकों के खिलाफ लगभग ₹52.5 करोड़ के बैंक लोन फ्रॉड मामले में आपराधिक कार्यवाही को बहाल कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वन-टाइम सेटलमेंट (OTS) के आधार पर ऐसे मामलों को खत्म नहीं किया जा सकता, विशेषकर तब जब जालसाजी, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार जैसे आरोप सामने हों।
OTS के आधार पर FIR खत्म करना त्रुटिपूर्ण: सुप्रीम कोर्ट
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने 2022 के पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें CBI द्वारा दर्ज FIR और चार्जशीट को इसलिए खत्म कर दिया गया था क्योंकि कंपनी ने राज्य बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर (अब SBI) के साथ OTS में ₹41 करोड़ जमा कर दिए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वास्तविक देनदारी लगभग ₹52 करोड़ थी और OTS में वसूली गई राशि हमेशा “पूर्ण वसूली का प्रतिनिधित्व नहीं करती”। बैंक आमतौर पर वसूली प्रक्रिया में दबाव के कारण कम राशि स्वीकार करता है, इसलिए ऐसे समझौतों के आधार पर आपराधिक आरोप समाप्त नहीं किए जा सकते।
आर्थिक अपराध—सिर्फ बैंक नहीं, पूरे समाज को हानि
कोर्ट ने कहा कि आर्थिक अपराधों का प्रभाव बैंक तक सीमित नहीं होता, बल्कि इससे सार्वजनिक धन और आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होती है।
बेंच ने कहा:
“आर्थिक अपराधों में समझौते को आधार बनाकर आपराधिक कार्यवाही समाप्त नहीं की जा सकती। ये मामले समाज के लिए भी हानिकारक होते हैं।”
कोर्ट ने Gian Singh और अन्य प्रस्थापित निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दर्ज मामले समझौते से खत्म नहीं किए जा सकते, खासकर तब जब सार्वजनिक कोष को नुकसान हुआ हो।
CBI जांच में क्या सामने आया?
CBI की 2015 की FIR में आरोप लगाया गया कि कंपनी ने:
फर्जी वर्क ऑर्डर,
हेरफेर किए गए राजस्व रिकॉर्ड,
गलत स्टॉक स्टेटमेंट
जमा कर बैंक से बड़े पैमाने पर क्रेडिट सुविधाएँ हासिल कीं।
बैंक की आंतरिक जांच में इसे NPA घोषित किया गया और करीब ₹52.5 करोड़ की धोखाधड़ी सामने आई। जांच के बाद CBI ने कंपनी, उसके निदेशकों और बैंक मैनेजर के खिलाफ IPC की धाराएँ 120B, 406, 420, 467, 468, 471 तथा PC Act की धारा 13(1)(d) व 13(2) के तहत चार्जशीट दाखिल की थी।
हाईकोर्ट का आदेश क्यों गलत था?
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने कई महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी की—
जालसाजी व फर्जी दस्तावेज के आरोप,
बैंक अधिकारी की कथित संलिप्तता,
भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम का आवेदन,
OTS के बाद भी ₹5 करोड़ से अधिक का घाटा।
कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में समझौते के आधार पर FIR खत्म करना “कानूनी दृष्टि से अस्थिर” है।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश
कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए:
FIR और चार्जशीट बहाल की,
ट्रायल कोर्ट को मेरिट पर सुनवाई जारी रखने का निर्देश दिया,
और स्पष्ट किया कि उसके अवलोकन का आरोपियों के बचाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

