बच्चे के 'छूछक' समारोह में सोने के गहनों की मांग को दहेज नहीं माना जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

Praveen Mishra

11 Dec 2025 2:29 PM IST

  • बच्चे के छूछक समारोह में सोने के गहनों की मांग को दहेज नहीं माना जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में दहेज मृत्यु के एक मामले में आरोपी व्यक्ति की सजा को रद्द कर दिया। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बच्चे के जन्म के बाद होने वाले 'छूछक' समारोह के समय सोने के गहनों की मांग को दहेज की मांग नहीं माना जा सकता।

    न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304B के तहत दहेज की मांग वही मानी जाएगी, जो विवाह के संबंध में की गई हो। बच्चे के जन्म के अवसर पर की गई किसी भी प्रकार की मांग को दहेज की परिभाषा में शामिल नहीं किया जा सकता।

    जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने कहा,

    “हम पाते हैं कि छूछक समारोह के समय सोने के गहनों की जो मांग की गई थी, उसे दहेज की मांग नहीं माना जा सकता। यह मांग विवाह से संबंधित न होकर बच्चे के जन्म के अवसर पर की गई थी, जबकि धारा 304B के तहत दहेज वही है जो विवाह के संबंध में दिया गया हो या देने पर सहमति बनी हो।”

    इस निष्कर्ष पर पहुंचते हुए पीठ ने Satvir Singh बनाम State of Punjab (2001) 8 SCC 633 के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दहेज से जुड़े तीन अवसर होते हैं—विवाह से पहले, विवाह के समय और विवाह के बाद। हालांकि, इन सभी मामलों में सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि मांग “विवाह के संबंध में” होनी चाहिए। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि बच्चे के जन्म या अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक समारोहों से जुड़े पारंपरिक उपहार या भुगतान दहेज की श्रेणी में नहीं आते।

    मामले की पृष्ठभूमि

    संक्षेप में, आरोपी-अपीलकर्ता का विवाह नवंबर 1986 में हुआ था। मई 1988 में दंपति को एक पुत्र हुआ, जिसके उपलक्ष्य में 'छूछक' नामक पारंपरिक समारोह आयोजित किया गया। 24 नवंबर 1988 को मृतका और उसका बच्चा एक कुएं में मृत पाए गए।

    मृतका के पिता ने प्राथमिकी दर्ज कराते हुए आरोप लगाया कि छूछक समारोह के समय सोने की अंगूठी और चेन की मांग को लेकर मृतका के साथ उत्पीड़न और प्रताड़ना की गई। इसके आधार पर आरोपी के खिलाफ धारा 498A और 304B IPC के तहत आरोप पत्र दाखिल किया गया।

    सत्र न्यायालय ने आरोपी को धारा 304B के तहत 7 वर्ष के कठोर कारावास और धारा 498A के तहत 1 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई, जो साथ-साथ चलनी थी। वर्ष 2015 में राजस्थान हाईकोर्ट ने भी अपील खारिज करते हुए सजा को बरकरार रखा।

    इसके बाद आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में आरोपी की धारा 304B IPC के तहत सजा को रद्द कर दिया, लेकिन धारा 498A IPC के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा। चूंकि आरोपी पहले ही 1 वर्ष की सजा से अधिक (लगभग 5 महीने अतिरिक्त) हिरासत में रह चुका था, इसलिए न्यायालय ने कोई अतिरिक्त सजा देना उचित नहीं समझा।

    इससे पहले आरोपी को सजा निलंबन और जमानत का लाभ दिया गया था, जिसे अंतिम आदेश के साथ निरस्त कर दिया गया।

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