नीलामी बिक्री की पुष्टि के बाद अलग वाद दायर नहीं किया जा सकता: सुप्रीम कोर्ट
Praveen Mishra
16 Dec 2025 11:15 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (15 दिसंबर) को यह स्पष्ट किया कि जब एक बार नीलामी बिक्री की पुष्टि हो जाती है और पीड़ित पक्ष द्वारा उसे निरस्त कराने के लिए कोई आवेदन नहीं किया जाता, तो ऐसी बिक्री की पुष्टि को चुनौती देने के लिए अलग से दीवानी वाद दायर करना सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश XXI नियम 92(3) के तहत स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में उपयुक्त उपाय धारा 47 CPC के तहत आवेदन दायर करना है, जो केवल अधिकार क्षेत्र के अभाव (lack of jurisdiction) या आदेश के शून्य (nullity) होने जैसे सीमित आधारों तक ही सीमित रहेगा।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी, जिसकी उत्पत्ति वर्ष 1970 में दुली चंद द्वारा न्यू बैंक ऑफ इंडिया (अब प्रतिवादी संख्या 6) के पक्ष में ट्रैक्टर ऋण हेतु की गई बंधक से हुई थी। चूक होने पर बैंक ने 1984 में एकपक्षीय डिक्री प्राप्त की। वाद की लंबित अवस्था और डिक्री पारित होने के बाद, 1985 में दो क्रेताओं (प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2) ने निर्णय-देयकर्ता में से एक से बंधक संपत्ति के कुछ हिस्से खरीद लिए।
निष्पादन कार्यवाही के दौरान 1988 में पूरी बंधक संपत्ति की नीलामी कर दी गई। अपीलकर्ता, जो निर्णय-देयकर्ता के पुत्र थे, ₹35,000 की राशि पर सर्वोच्च बोलीदाता घोषित किए गए। अगस्त 1988 में बिक्री की पुष्टि हुई और जून 1989 में कब्जा सौंप दिया गया।
इसके बाद जुलाई 1989 में प्रतिवादियों ने एक अलग दीवानी वाद दायर कर यह घोषणा मांगी कि उनके द्वारा खरीदे गए हिस्से से संबंधित नीलामी बिक्री शून्य है, यह आरोप लगाते हुए कि नीलामी प्रक्रिया में अनियमितताएं और धोखाधड़ी हुई थी। ट्रायल कोर्ट, अपीलीय न्यायालय और पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने उनके पक्ष में निर्णय दिया, जिसके बाद प्रतिवादी-अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
निचली अदालतों के समवर्ती निर्णयों को निरस्त करते हुए, न्यायमूर्ति पारदीवाला द्वारा लिखित निर्णय में कहा गया कि चूंकि प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2 नीलामी बिक्री से स्वयं को पीड़ित बता रहे थे, इसलिए आदेश XXI नियम 92(3) CPC के तहत बिक्री की पुष्टि के बाद उनके द्वारा दायर अलग वाद बनाए रखने योग्य नहीं था, विशेषकर जब नियम 89 या 90 के तहत बिक्री निरस्त कराने का कोई आवेदन नहीं किया गया था।
इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने कहा कि यह अलग वाद धारा 47 CPC के अंतर्गत भी वर्जित है, क्योंकि निष्पादन से संबंधित सभी प्रश्न केवल निष्पादन न्यायालय द्वारा ही तय किए जाने चाहिए।
अदालत ने स्पष्ट किया कि नीलामी बिक्री को चुनौती देने के लिए अलग वाद दायर करने के बजाय, प्रतिवादी संख्या 1 एवं 2 को धारा 47 CPC के तहत आवेदन दायर करना चाहिए था और उसमें नीलामी प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं और धोखाधड़ी के आधार उठाने चाहिए थे।
दोनों उपायों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए, न्यायालय ने कहा कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में, भले ही नियम 92(3) के तहत अलग वाद पर रोक हो, फिर भी धारा 47 के तहत यह दलील दी जा सकती है कि पूरी नीलामी अधिकार क्षेत्र के अभाव में हुई और इसलिए शून्य है। हालांकि, धारा 47 का उपयोग आदेश XXI के नियम 89, 90 या 91 के तहत समय-सीमा से बाहर हो चुके दावों को पुनर्जीवित करने के लिए नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि धारा 47 के तहत दायर आवेदन वस्तुतः नियम 89, 90 या 91 के अंतर्गत आने वाले आधारों पर आधारित है, तो उसे उसी नियम के तहत माना जाएगा और सीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 127 के अंतर्गत समय-सीमा समाप्त होने पर वह आवेदन असफल होगा।
अंततः, न्यायालय ने कहा कि आदेश XXI नियम 92(3) CPC अलग वाद पर रोक लगाता है, सिवाय उन दुर्लभ मामलों के जहां यह सिद्ध किया जाए कि पूरी निष्पादन कार्यवाही ही अधिकार क्षेत्र के अभाव में हुई और इसलिए शून्य है। फिर भी, यदि वादी मूल वाद का पक्षकार या उसका प्रतिनिधि है, तो उसे अलग वाद दायर करने के बजाय अनिवार्य रूप से धारा 47 CPC के तहत ही उपाय अपनाना होगा; अन्यथा उसका वाद धारा 47 में निहित स्पष्ट प्रतिबंध के कारण अस्वीकार्य होगा।

