सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को उस शख्स को 10 लाख रुपये देने का निर्देश दिया, जिसने भारतीय जासूस के रूप में पाकिस्तान की जेल में 14 साल बिताने का दावा किया

Avanish Pathak

13 Sept 2022 11:37 AM IST

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह उस व्यक्ति को 10 लाख रुपये की अनुग्रह राशि का भुगतान करे, जिसने दावा किया कि उसे एक गुप्त मिशन के लिए पाकिस्तान भेजा गया था, जहाँ उसे गिरफ्तार कर लिया गया और 14 साल तक जेल में रखा गया।

    मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस रवींद्र भट ने की।

    मामला

    राजस्‍थान निवासी महमूद अंसारी ने अपनी याचिका में कहा था कि उन्हें 1966 में डाक विभाग में नियुक्त किया गया था। भारत सरकार के स्पेशल ब्यूरो ऑफ इंटेलिजेंस ने उन्हें 1972 में राष्ट्र के प्रति अपनी सेवाएं देने का प्रस्ताव दिया, जिसके अनुसार उन्हें गुप्त ऑपरेशन के लिए पाकिस्तान में प्रतिनियुक्त किया गया था।

    वह भाग्यशाली रहा और उसे सौंपे गए काम को दो बार पूरा किया हालांकि जब उसे तीसरी बार पाकिस्तान भेजा गया तो दुर्भाग्य से उसे पाकिस्तानी रेंजरों ने रोक लिया। 23 दिसंबर 1976 को उसे जासूसी गतिविधियों के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।

    याचिकाकर्ता ने बताया कि गिरफ्तारी के बाद उनका कोर्ट मार्शल किया गया और ऑफिसिय‌ल सिक्रेट एक्ट,1923 (पाकिस्तान का कानून) की धारा 3 के तहत मुकदमा चलाया गया और उन्हें 14 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।

    उन्होंने प्रस्तुत किया कि जब 1989 में पाकिस्तान जेल से रिहा किया गया और उन्होंने अपनी सेवाओं को फिर से शुरू करने के लिए अधिकारियों से संपर्क किया तो उन्हें बताया गया कि उनकी सेवाओं को 31 जुलाई 1980 को समाप्त कर दिया गया था, जिसे वह समय पर चुनौती नहीं दे सके।

    प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने 2000 में बहाली और बैकवेज के लिए उनकी याचिका को खारिज कर दिया। 2017 में राजस्थान हाईकोर्ट ने भी लंबी देरी और अधिकार क्षेत्र की कमी का हवाला देते हुए उनकी याचिका को खारिज कर दिया। इसके बाद याचिकाकर्ता ने 2018 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    बहस

    राज्य की ओर से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) विक्रमजीत बनर्जी ने प्रस्तुत किया कि पेमेंट स्लिप्स रिकॉर्ड पर मौजूद है, और य‌‌ह दिखाती है कि याचिकाकर्ता को 19 नवंबर 1976 को अंतिम बार भुगतान किया गया था और 1977 के बाद से याचिकाकर्ता ने अपना वेतन नहीं लिया।

    एएसजी बनर्जी ने कहा राज्य का याचिकाकर्ता से कोई लेना-देना नहीं है।

    हालांकि, सीजेआई ललित ने कहा, "आप स्वीकार करते हैं कि वह व्यक्ति आपकी सेवा में था, इसलिए दूसरा भाग आप स्वीकार करते हैं कि आपने उसकी सेवाओं को समाप्त किया क्योंकि वह अनुपस्थित रहा। आपने 1980 में कार्रवाई की, भले ही अनुपस्थिति 1976 से थी। आपने उसे या उसके आश्रितों या उसकी पत्नी को उसके बारे में पहली बार कब सूचित किया था? जब वह अनुपस्थित रहा तो क्या आपने उसकी तनख्वाह और परिलब्धियों को उसकी पत्नी को भेजा था?"

    एएसजी बनर्जी ने जवाब में कहा कि याचिकाकर्ता ने वेतन नहीं लिया। अदालत ने यह भी नोट किया कि मुख्यमंत्री और गृह मंत्री जैसे कई अधिकारियों को उनकी पत्नी ने उनके अनुपस्थिति के बारे में अभ्यावेदन दिया था। जस्टिस भट ने एएसजी के इस आग्रह पर कि राज्य का याचिकाकर्ता से कोई लेना-देना नहीं है, ने कहा, "मूल सरकार के लिए मानक प्रक्रिया यह है वह कभी भी अपना नहीं मानती है। यह मानक प्रक्रिया है।"

    सीजेआई ललित ने कहा,

    "विश्वसनीयता के मुद्दे को देखने के लिए, हम इस आधार पर इसका परीक्षण करना चाहेंगे कि यदि वह कहता है कि दो मौकों पर वह सीमा पार कर गया, वहां एक मिशन पर गया और वापस आया और फिर से सेवा में वापस ले लिया गया, ऐसी स्थिति में परीक्षण आसान होगा। आपने उन मौकों पर उनकी अनुपस्थिति को क्या माना?"

    इस पर एएसजी बनर्जी ने कहा कि यह एक "काल्पनिक कहानी" है।

    सीजेआई ललित ने तब कहा, "तब ये कहें कि वह व्यक्ति उन दो मौकों पर कभी अनुपस्थित रहा ही नहीं। आप केवल इतना कह रहे हैं कि यह 1976 था इसलिए कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है ... एक और संदिग्ध बात यह है कि अगर वह 1976 से अनुपस्थित था, तो आपने क्यों 1980 में यानी चार साल बाद कार्रवाई की? आपका टर्मिनेशन ऑर्डर 1980 का है।"

    कोर्ट ने पाकिस्तान की अदालत के फैसले का भी जिक्र किया, जिसमें याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया गया था।

    कोर्ट ने पूछा,

    "आपकी सजा का आधार यह नहीं है कि एक भारतीय नागरिक को पाकिस्तान में कुछ जासूसी गतिविधियां करते हुए पाया गया था और इसलिए एक संदिग्ध के रूप में उसे दोषी ठहराया गया और सजा सुनाई गई। आपकी सजा आधार यह है कि आप रेजिमेंट का हिस्सा थे। एक रेजिमेंट के एक वर्दीधारी सैनिक के रूप में आपने कुछ कार्य किए, इसलिए आपको कोर्ट मार्शल किया गया और दंडित किया गया।"

    जस्टिस भट ने कहा, "आप पाकिस्तानी रेंजरों का हिस्सा थे। यदि आप वास्तव में एक विध्वंसक भूमिका में गए थे, तो आपको इसका उल्लेख करना चाहिए था।"

    याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि उसका पाकिस्तानी सेना से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्हें 1987 में रिहा कर दिया गया और दो साल तक पाकिस्तान स्थित भारतीय दूतावास में रखा गया। 1989 में वे भारत वापस आ गए।

    कोर्ट ने फैसले में कहा,

    "मामले के अजीबोगरीब तथ्यों और परिस्थितियों में, रिकॉर्ड के आधार पर हमारे विचार में यदि प्रतिवादी याचिकाकर्ता को अनुग्रह राशि के रूप में 10 लाख रुपये का भुगतान किया जाना न्यायपूर्ण होगा। विचाराधीन राशि आज से 3 सप्ताह के भीतर याचिकाकर्ता को सौंप दी जाए। यह बिल्कुल स्पष्ट किया जाता है कि इस राशि का भुगतान किसी भी तरह से प्रतिवादियों के दायित्व या याचिकाकर्ता के अधिकार को नहीं दर्शाता है।"

    गौरतलब है कि बेंच ने शुरू में 5 लाख रुपये की बात कही थी। आदेश सुनाए जाने के बाद, वकील ने यह कहते हुए वृद्धि का अनुरोध किया कि याचिकाकर्ता अब 75 वर्ष का है और पूरी तरह से अपनी बेटी पर निर्भर है। वकील ने कहा, "याचिकाकर्ता ने राष्ट्र को अपनी सेवाएं दी हैं, सरकार ने न केवल उसे अस्वीकार कर दिया है बल्कि उसे पेंशन से भी वंचित कर दिया है।"

    इसके बाद पीठ ने राशि को बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दिया। एएसजी बनर्जी ने आशंका व्यक्त की कि भुगतान का अर्थ यह हो सकता है कि भारत सरकार की जासूसी की जिम्मेदारी थी। पीठ ने कहा कि उसने स्पष्ट किया है कि निर्देश किसी भी तरह से केंद्र सरकार के दायित्व को नहीं दर्शाता है।

    केस टाइटल: महमूद अंसारी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया| SLP(C) No 11184/2018

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