सुप्रीम कोर्ट ने सुखबीर बादल और बिक्रम मजीठिया से जस्टिस रंजीत सिंह पर की गई टिप्पणी के लिए खेद प्रकट करने पर विचार करने को कहा

Shahadat

19 Nov 2024 2:38 PM IST

  • सुप्रीम कोर्ट ने सुखबीर बादल और बिक्रम मजीठिया से जस्टिस रंजीत सिंह पर की गई टिप्पणी के लिए खेद प्रकट करने पर विचार करने को कहा

    पूर्व शिरोमणि अकाली दल प्रमुख सुखबीर सिंह बादल और पंजाब के पूर्व विधायक बिक्रम सिंह मजीठिया के खिलाफ जस्टिस (रिटायर) रंजीत सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि पक्षकार आपस में ही विवाद को सुलझाने का प्रयास करें।

    जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस अरविंद कुमार की खंडपीठ ने प्रतिवादियों (बादल और मजीठिया) की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट पुनीत बाली से यह निर्देश लेने को कहा कि क्या वे जस्टिस सिंह के प्रति खेद प्रकट करने के लिए इच्छुक हैं। वहीं दूसरी ओर जस्टिस सिंह की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट निधेश गुप्ता से यह पता लगाने को कहा गया कि क्या प्रतिवादियों द्वारा इस तरह का खेद प्रकट करना/माफी मांगना रिटायर जज को स्वीकार्य है।

    जस्टिस सुंदरेश ने बाली से कहा,

    "एकमात्र रास्ता [...] यदि आप उनसे खेद व्यक्त कर सकें। 2 सप्ताह में पता लगा लें, उन्हें मना लें। यह अच्छा नहीं लगता। आप पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं, [वे पूर्व जज हैं]।"

    जस्टिस कुमार ने भी इसी तरह की भावना व्यक्त करते हुए कहा,

    "पछतावा व्यक्त करने से आप [प्रतिवादियों] को उच्च स्थान प्राप्त होगा।"

    एक बिंदु पर गुप्ता ने न्यायालय को प्रतिवादियों द्वारा कथित रूप से दिए गए बयान दिखाने का प्रयास किया।

    इस पर विस्तार से चर्चा करने से इनकार करते हुए जस्टिस सुंदरेश ने कहा,

    "आपको आगे बढ़ना होगा। हम आपको केवल इतना ही बताएंगे कि आप जितना ऊपर जाएंगे, अहंकार भी उतना ही बढ़ेगा। नीचे के लोग, वे आगे बढ़ने में अधिक लचीले हैं। आपने जिन उच्च पदों पर कार्य किया है। बस इसे अनदेखा करें और आगे बढ़ते रहें। हाईकोर्ट के पास निपटने के लिए और भी बड़े मुद्दे हैं।"

    सुनवाई के दौरान, जब गुप्ता ने न्यायालय को जांच आयोग अधिनियम की धारा 10ए के बारे में बताया, बाली ने प्रस्तुत किया कि हाईकोर्ट जज जस्टिस सिंह की शिकायत की स्थिरता के बारे में निश्चित नहीं था, यह देखते हुए कि वह अब आयोग के प्रमुख नहीं हैं। उन्होंने आगे आरोप लगाया कि जब हाईकोर्ट द्वारा सुनवाई योग्यता पर तर्क लिए गए तो जस्टिस सिंह ने एकल न्यायाधीश के खिलाफ आरोप लगाना शुरू कर दिया। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से शिकायत की कि उनके मामले की सुनवाई बारी से बाहर की जा रही है। बाली ने जस्टिस सिंह के आचरण पर सवाल उठाते हुए दलीलें भी दीं और हाईकोर्ट के कुछ आदेशों के माध्यम से न्यायालय को अवगत कराया। उन्होंने आगे तर्क दिया कि अधिनियम को "जैसा है" वैसा ही पढ़ा जाना चाहिए।

    उनकी बात सुनते हुए जस्टिस सुंदरेश ने गुप्ता से कहा,

    "आप हाईकोर्ट के पूर्व जज हैं। आप हाईकोर्ट क्यों जाना चाहते हैं? अपने मामले को लड़ने के लिए नहीं। आपकी व्यक्तिगत उपस्थिति की आवश्यकता क्यों है। आप वहां क्यों जाना चाहते हैं...अच्छे स्वाद में नहीं...[इसके लिए] जटिल समझ की आवश्यकता नहीं है। धारा 10ए क्या कहती है...वह राजनीतिक व्यक्तित्व हैं। इस मामले में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है।"

    अंततः, सीनियर वकीलों को अपने मुवक्किलों से निर्देश प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लिए मामले को 2 सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया गया।

    संक्षेप में कहें तो जस्टिस सिंह ने पंजाब के तत्कालीन सीएम अमरिंदर सिंह द्वारा गठित आयोग का नेतृत्व किया था, जिसने जून 2015 और मार्च 2017 के बीच पंजाब में हुई बेअदबी (और पुलिस फायरिंग) की विभिन्न घटनाओं की जांच की थी। अपने निष्कर्षों में आयोग ने डेरा सच्चा सौदा (और उसके अनुयायियों) को फरीदकोट के एक गुरुद्वारे से गुरु ग्रंथ साहिब की चोरी और अपवित्रता तथा अपमानजनक पोस्टर लगाने के लिए जिम्मेदार ठहराया।

    रिपोर्ट में आगे बेअदबी विरोधी प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई के लिए शिरोमणि अकाली दल के संरक्षक प्रकाश सिंह बादल को दोषी ठहराया गया। अगस्त 2018 में बादल ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया कि जस्टिस सिंह के पास कोई कानूनी योग्यता नहीं है। आयोग की रिपोर्ट तैयार करने में गवाहों के बयानों सहित दस्तावेजों को गढ़ने का आरोप लगाया।

    कुछ दिनों बाद मजीठिया सहित शिरोमणि अकाली दल के नेताओं ने पंजाब विधानसभा के बाहर प्रदर्शन किया, जहां आयोग की रिपोर्ट का कथित तौर पर मजाक उड़ाया गया। इन घटनाओं के बाद जस्टिस सिंह ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष अधिनियम की धारा 10 ए के तहत आपराधिक शिकायत दर्ज की, जिसमें बादल और मजीठिया पर आयोग की रिपोर्ट के संबंध में उनके खिलाफ अपमानजनक बयान देने का आरोप लगाया गया।

    जवाब में बादल और मजीठिया ने तर्क दिया कि अधिनियम के तहत शिकायत तभी सुनवाई योग्य है, जब इसे आयोग के सदस्य द्वारा दायर किया गया हो। हालांकि, जस्टिस रंजीत द्वारा हाईकोर्ट के समक्ष शिकायत दायर किए जाने के समय आयोग का अस्तित्व समाप्त हो चुका था। उन्होंने आगे कहा कि रिटायर जज द्वारा दायर हलफनामे गलत थे, क्योंकि वे यह खुलासा करने में विफल रहे कि वह आयोग के सदस्य/अध्यक्ष नहीं रहे।

    8 नवंबर, 2019 को हाईकोर्ट ने सुनवाई के बाद जस्टिस सिंह की शिकायत को खारिज कर दिया। उल्लेखनीय है कि मामले की सुनवाई करने वाले जज उस समय ट्रांसफर के दौर से गुजर रहे थे, जब आदेश सुरक्षित रखे गए। जस्टिस सिंह ने मामले के फैसले में की गई अनावश्यक जल्दबाजी का विरोध करते हुए उसी के संबंध में याचिका दायर की, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया।

    हाईकोर्ट द्वारा उनकी शिकायत खारिज किए जाने को चुनौती देते हुए जस्टिस सिंह ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने जनवरी, 2020 में बादल और मजीठिया को नोटिस जारी किए।

    संदर्भ के लिए, अधिनियम की धारा 10ए "आयोग या उसके किसी सदस्य को बदनाम करने के लिए किए गए कार्यों के लिए दंड" से संबंधित है। इसकी उपधारा (1) में प्रावधान है:

    "यदि कोई व्यक्ति, बोले गए या पढ़े जाने वाले शब्दों द्वारा, कोई कथन या प्रकाशन करता है या कोई अन्य कार्य करता है, जिससे आयोग या उसके किसी सदस्य की बदनामी होती है, तो उसे छह महीने तक की साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।"

    केस टाइटल: न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) रंजीत सिंह बनाम सुखबीर सिंह बादल एवं अन्य, अपराध पंजी संख्या 1982/2019

    Next Story