सुप्रीम कोर्ट ने 'लव जिहाद' कानूनों को चुनौती देने के मामलोंं में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के हस्तक्षेप आवेदन को अनुमति दी

LiveLaw News Network

17 Feb 2021 9:37 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने लव जिहाद कानूनों को चुनौती देने के मामलोंं में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के हस्तक्षेप आवेदन को अनुमति दी

    सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को 'जमीयत उलेमा-ए-हिंद' (इस्लामिक विद्वानों की एक संस्था) को उत्तर प्रदेश निषेध धर्म परिवर्तन अध्यादेश 2020 और उत्तराखंड फ्रीडम ऑफ रिलीजन एक्ट, 2018 और अन्य राज्यों द्वारा बनाए गए इस प्रकार के कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं में प्रतिवादी के रूप में खुद को जोड़ने की अनुमति दी।

    जब अदालत धार्मिक परिवर्तन कानूनों को चुनौती देने वाली दो जनहित याचिकाओं पर विचार कर रही थी, तब वरिष्ठ अधिवक्ता एजाज मकबूल ने जमीयत उलेमा-ए-हिंद 'द्वारा दायर किए गए हस्तक्षेप आवेदन का उल्लेख किया।

    भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने अधिवक्ता मकबूल से पूछा,

    "आपका मुद्दा क्या है? आप कैसे व्यथित हैं?"

    अधिवक्ता मकबूल ने कहा,

    "इन कानूनों से बड़ी संख्या में मुस्लिम युवाओं को परेशान किया गया है। हम अदालत की मदद करना चाहते हैं।"

    मुख्य न्यायाधीश ने आवेदन को अनुमति देते हुए कहा,

    "ठीक है।"

    वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह एनजीओ 'सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस' की ओर से पेश हुए। इस एनजीओ ने मुख्य याचिका दायर की है। इसने पीठ को बताया कि मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश द्वारा बनाए गए समान कानूनों को चुनौती देने के लिए एक संशोधन आवेदन दायर किया गया है।

    सिंह ने कहा कि याचिका मूल रूप से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कानूनों को चुनौती देते हुए दायर की गई थी।

    सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामसुब्रमणियम की पीठ ने कहा कि वह मामलों पर दो सप्ताह के बाद विचार करेगी।

    दिल्ली के वकीलों के एक समूह, अर्थात् विशाल ठाकरे, अभयसिंह यादव और प्रणवेश ने भी शीर्ष अदालत के समक्ष इन कानूनों की वैधता को चुनौती दी है। जनहित याचिका में कहा गया है कि "लव जिहाद" के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को शून्य घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि "वे संविधान के बुनियादी ढांचे को बिगाड़ते हैं।"

    जनहित याचिका में कहा गया है कि "लव जिहाद" के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को शून्य घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि "वे संविधान की मूल सरंचना को भंग करते हैं।" यह दलील दी गई है कि हमारे संविधान ने भारत के नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए हैं जिसमें अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़े समुदायों के अधिकार भी शामिल हैं।

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