"बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव एक हमला है" : पेगासस जासूसी केस में सीजेआई के आदेश के मुख्य भाग

LiveLaw News Network

27 Oct 2021 12:22 PM GMT

  • बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव एक हमला है : पेगासस जासूसी केस में सीजेआई के आदेश के मुख्य भाग

    पेगासस स्पाइवेयर याचिकाओं में सुप्रीम कोर्ट का आदेश जॉर्ज ऑरवेल के प्रसिद्ध उपन्यास 1984 के एक उद्धरण के साथ शुरू हुआ:

    "यदि आप कोई रहस्य रखना चाहते हैं, तो आपको इसे अपने आप से भी छिपाना होगा।"

    अदालत ने कहा कि,

    'रिट याचिकाओं में आधुनिक तकनीक का उपयोग करने की कथित संभावना' के बारे में ऑरवेलियन चिंता की गई है कि आप जो सुनते हैं, जो देखते हैं उसे देखें और आप क्या करते हैं, यह जाने।"

    आदेश में निम्नलिखित महत्वपूर्ण अवलोकन किए गए हैं।

    राजनीतिक गठजोड़ में प्रवेश नहीं, लेकिन मौलिक अधिकारों के हनन से सभी की रक्षा करने से कोर्ट कभी नहीं हिचकिचाता

    हम यह स्पष्ट करते हैं कि हमारा प्रयास संवैधानिक आकांक्षाओं और कानून के शासन को बनाए रखने का है, बिना खुद को राजनीतिक बयानबाजी में डूबे रहकर। यह अदालत हमेशा राजनीतिक घेरे में न आने के प्रति सचेत रही है। हालांकि, साथ ही, यह सभी को मौलिक अधिकारों के हनन से बचाने से कभी नहीं हिचकिचाती।

    हम सूचना क्रांति के युग में रहते हैं, जहां व्यक्तियों का पूरा जीवन क्लाउड में या डिजिटल डोजियर में संग्रहीत होता है। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि जहां प्रौद्योगिकी लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए एक उपयोगी उपकरण है, वहीं इसका उपयोग किसी व्यक्ति के उस पवित्र निजी स्थान को भंग करने के लिए भी किया जा सकता है (पैरा 31)

    निजता पर

    भारत के प्रत्येक नागरिक को निजता के उल्लंघन से बचाना चाहिए

    एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज के सदस्यों को निजता की उचित अपेक्षा होती है। निजता पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं की एकमात्र चिंता नहीं है। भारत के प्रत्येक नागरिक को निजता के उल्लंघन से बचाना चाहिए। यह अपेक्षा ही है जो हमें अपनी पसंद, स्वतंत्रता का प्रयोग करने में सक्षम बनाती है। (पैरा 32)

    निजता पर प्रतिबंध को अनिवार्य रूप से संवैधानिक परीक्षण से गुजरना चाहिए

    यद्यपि अहस्तांतरणीय घोषित किया गया है, निजता के अधिकार को निश्चित रूप से पूर्ण नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि भारतीय संविधान उचित प्रतिबंधों के बिना इस तरह के अधिकार का प्रावधान नहीं करता है।अन्य सभी मौलिक अधिकारों की तरह, इस न्यायालय को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि जब निजता के अधिकार की बात आती है तो कुछ सीमाएं भी मौजूद होती हैं। हालांकि, लगाए गए किसी भी प्रतिबंध को अनिवार्य रूप से संवैधानिक परीक्षण से गुजरना होगा। (पैरा 33)

    पर्याप्त वैधानिक सुरक्षा उपायों के अलावा व्यक्तियों पर अंधाधुंध जासूसी की अनुमति नहीं दी जा सकती है,

    निजता के अधिकार का सीधे तौर पर उल्लंघन होता है जब किसी व्यक्ति पर राज्य या किसी बाहरी एजेंसी द्वारा निगरानी या जासूसी की जाती है। (पैरा 35)

    बेशक, यदि राज्य द्वारा किया जाता है, तो उसे संवैधानिक आधार पर उचित ठहराया जाना चाहिए। यह न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य के हित से अवगत है कि जीवन और स्वतंत्रता संरक्षित है और इसे संतुलित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, आज की दुनिया में, खुफिया एजेंसियों द्वारा निगरानी के माध्यम से एकत्रित की गई जानकारी हिंसा और आतंक के खिलाफ लड़ाई के लिए आवश्यक है। इस जानकारी तक पहुंचने के लिए, किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है, बशर्ते इसे तभी किया जाता है जब यह राष्ट्रीय सुरक्षा/हितों की रक्षा के लिए बिल्कुल आवश्यक हो और आनुपातिक हो। ऐसी कथित तकनीक के उपयोग के लिए विचार साक्ष्य आधारित होने चाहिए। कानून के शासन द्वारा शासित एक लोकतांत्रिक देश में, संविधान के तहत कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन करके, पर्याप्त वैधानिक सुरक्षा उपायों के अलावा व्यक्तियों पर अंधाधुंध जासूसी की अनुमति नहीं दी जा सकती है। (पैरा 36)

    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव

    इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि निगरानी और यह ज्ञान कि किसी पर जासूसी का खतरा है, यह उस तरीके को प्रभावित कर सकता है जिस तरह से कोई व्यक्ति अपने अधिकारों का प्रयोग करने का निर्णय लेता है। इस तरह के परिदृश्य के परिणामस्वरूप सेल्फ सेंसरशिप हो सकती है। यह विशेष रूप से चिंता का विषय है जब यह प्रेस की स्वतंत्रता से संबंधित है, जो लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस तरह का प्रतिकूल प्रभाव प्रेस की महत्वपूर्ण सार्वजनिक निगरानी भूमिका पर हमला है, जो सटीक और विश्वसनीय जानकारी प्रदान करने की प्रेस की क्षमता को कमजोर कर सकता है। (पैरा 39)

    पत्रकारिता स्त्रोतों का संरक्षण

    पत्रकारिता के स्रोतों का संरक्षण प्रेस की स्वतंत्रता के लिए बुनियादी शर्तों में से एक है। इस तरह के संरक्षण के बिना, स्रोतों को जनहित के मामलों पर जनता को सूचित करने में प्रेस की सहायता करने से रोका जा सकता है। .. एक लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए पत्रकारिता के स्रोतों के संरक्षण के महत्व और जासूसी तकनीकों के संभावित प्रतिकूल प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान मामले में इस न्यायालय का कार्य, जहां देश के नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन के कुछ गंभीर आरोपों को उठाया गया है, बहुत महत्वपूर्ण है। (पैरा 40-41)

    अधपकी याचिकाओं की हैप्पी फाइलिंग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए

    इस न्यायालय ने आम तौर पर रिट याचिकाओं, विशेष रूप से जनहित याचिकाओं को हतोत्साहित करने का प्रयास किया है, जो याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए किसी भी अतिरिक्त कदम के बिना पूरी तरह से समाचार पत्रों की रिपोर्टों पर आधारित हैं। (पैरा 42)

    जबकि हम समझते हैं कि इन याचिकाओं में लगाए गए आरोप उन मामलों से संबंधित हैं जिनके बारे में समाचार एजेंसियों द्वारा की गई जांच रिपोर्टिंग को छोड़कर आम नागरिकों को जानकारी नहीं होगी, दायर की गई कुछ याचिकाओं की गुणवत्ता को देखते हुए, हम यह मानने के लिए विवश हैं कि लोगों को केवल कुछ समाचार पत्रों की रिपोर्ट पर आधी अधूरी याचिकाएं दायर नहीं करनी चाहिए। इस तरह की क़वायद, याचिका दायर करने वाले व्यक्ति द्वारा समर्थित कार्य की मदद करने से तो दूर, अक्सर स्वयं कार्य के लिए हानिकारक होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि न्यायालय को मामले में उचित सहायता नहीं मिलेगी, यहां तक ​​कि प्रारंभिक तथ्यों को निर्धारित करने का भार भी न्यायालय पर छोड़ दिया जाएगा। यही कारण है कि अदालतों में और विशेष रूप से इस न्यायालय में, जो देश में अंतिम निर्णायक निकाय है, ऐसी याचिकाओं की हैप्पी फाइलिंग को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। (पैरा 43)

    इसका मतलब यह नहीं है कि समाचार एजेंसियों पर न्यायालय को भरोसा नहीं है

    इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि समाचार एजेंसियों पर न्यायालय द्वारा भरोसा नहीं किया जाता है, बल्कि उस भूमिका पर जोर दिया जाना चाहिए जो लोकतंत्र में प्रत्येक स्तंभ की होती है। समाचार एजेंसियां ​​​​तथ्यों की रिपोर्ट करती हैं और उन मुद्दों को प्रकाश में लाती हैं जिन्हें अन्यथा सार्वजनिक रूप से ज्ञात नहीं किया जा सकता है। ये तब एक सक्रिय और संबंधित नागरिक समाज द्वारा की गई आगे की कार्रवाई के साथ-साथ न्यायालयों में किए गए किसी भी बाद की फाइलिंग के लिए आधार बन सकते हैं। लेकिन अखबार की रिपोर्ट, अपने आप में, सामान्य तौर पर, अदालत में दायर की जा सकने वाली रेडीमेड दलीलों के रूप में नहीं ली जानी चाहिए। (पैरा 43)

    केंद्र द्वारा लिए गए स्टैंड पर

    जब नागरिकों के मौलिक अधिकार खतरे में हों तो भारत संघ को प्रतिकूल स्थिति नहीं लेनी चाहिए। (पैरा 46)

    न्यायालय के समक्ष एक रिट कार्यवाही में याचिकाकर्ताओं और राज्य से सूचना का यह मुक्त प्रवाह, सरकारी पारदर्शिता और खुलेपन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो हमारे संविधान के तहत तय किए गए मूल्य हैं। (पैरा 47)

    राष्ट्रीय सुरक्षा हौवा नहीं हो सकती जिससे न्यायपालिका दूर भागे

    यह कानून की एक स्थापित स्थिति है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों में न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि हर बार "राष्ट्रीय सुरक्षा" की छाया उठने पर राज्य को एक मुफ्त पास मिल जाए। राष्ट्रीय सुरक्षा वह हौवा नहीं हो सकती ट जिससे न्यायपालिका अपने मात्र उल्लेख के आधार पर दूर भागे ।यद्यपि इस न्यायालय को राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र का अतिक्रमण करने में चौकस रहना चाहिए, न्यायिक समीक्षा के विरुद्ध कोई सर्वव्यापक निषेध नहीं कहा जा सकता है। (पैरा 49)

    राज्य द्वारा केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का आह्वान करने से न्यायालय मूकदर्शक नहीं बन जाता

    बेशक, प्रतिवादी भारत का संघ सूचना प्रदान करने से इनकार कर सकता है जब संवैधानिक विचार मौजूद हों, जैसे कि राज्य की सुरक्षा से संबंधित, या जब एक विशिष्ट क़ानून के तहत कोई विशिष्ट प्रतिरक्षा है। हालांकि यह राज्य पर निर्भर है कि वह न केवल विशेष रूप से इस तरह की संवैधानिक चिंता या वैधानिक उन्मुक्ति की वकालत करे, बल्कि उन्हें हलफनामे पर न्यायालय में इसे साबित और उचित भी ठहराए। प्रतिवादी भारत संघ को आवश्यक रूप से उन तथ्यों को साबित करना करना चाहिए जो इंगित करते हैं कि मांगी गई जानकारी को गुप्त रखा जाना चाहिए क्योंकि उनका प्रकटीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को प्रभावित करेगा। उन्हें उस रुख को सही ठहराना चाहिए जो वो न्यायालय के समक्ष रखते हैं। राज्य द्वारा केवल राष्ट्रीय सुरक्षा का आह्वान करने से न्यायालय मूकदर्शक नहीं बन जाता। (पैरा 50)

    राष्ट्र की सुरक्षा के अलावा अन्य कारणों से नागरिकों के फोन और अन्य उपकरणों से संग्रहीत डेटा की अनधिकृत निगरानी / एक्सेस अवैध, आपत्तिजनक और चिंता का विषय होगा।

    राष्ट्रीय हित में और/या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आतंकवाद, अपराध और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए खुफिया एजेंसियों द्वारा निगरानी और डेटा एकत्र करने के विभिन्न रूपों को दुनिया भर में स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार एक व्यापक सहमति है कि अनधिकृत निगरानी/संग्रहीत डेटा तक पहुंच राष्ट्र की सुरक्षा के अलावा अन्य कारणों से नागरिकों के फोन और अन्य उपकरण अवैध, आपत्तिजनक और चिंता का विषय होंगे। (पैरा 52)

    केस का नाम और उद्धरण : मनोहर लाल शर्मा बनाम भारत संघ | LL 2021 SC 600

    मामला संख्या। और दिनांक: डब्लयूपी (सीआरएल) 314/ 2021| 27 अक्टूबर 2021

    पीठ : सीजेआई एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस हिमा कोहली

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