न्यायिक नियुक्तियों पर फैसले नहीं लेना कार्यपालिका के "शस्त्रागार में नया हथियार" हैः गोपाल सुब्रमणियम

LiveLaw News Network

26 Nov 2020 5:30 AM GMT

  • न्यायिक नियुक्तियों पर फैसले नहीं लेना कार्यपालिका के शस्त्रागार में नया हथियार हैः गोपाल सुब्रमणियम

    सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमणियम ने कहा है कि कॉलेजियम की सिफारिशों पर फैसले नहीं लेना कार्यपालिका के "शस्त्रागार में नया हथियार" है।

    23 नवंबर को आयोजित एक वेब‌िनार में, जिसका विषय था, "भारतीय लोकतंत्र में कानून का शासन और न्यायिक स्वतंत्रता के अ‌स्‍थायी अर्थ" पर कहा, "एक स्वतंत्र न्यायपालिका के बिना, संविधान कुछ भी नहीं है, बल्‍कि कोरे वादों का संग्रह है।"

    सुब्रमणियम, जिन्होंने 2014 में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित चार नामों में से, केंद्र सरकार द्वारा उनकी नियुक्ति पर रोक लगाने के बाद, नाटकीय ढंग से जज के पद के लिए अपनी सहमति वापस ले ली थी, ने कहा, "कार्यपालिका ने अपने शस्त्रागार में एक नया हथियार पाया है। यह उन नियुक्तियों पर बैठ सकती है, जिससे वह असहज है। न्यायपालिका बहुत ज्यादा नहीं कर सकती है।"

    कैम्ब्रिज विश्यव‌िद्यालय और बौद्धिक मंच द्वारा आयोजित, कार्यक्रम में बौद्धिक मंच के निदेशक डॉ जूलियन हूपर्ट, कॉर्पस क्रिस्टी कॉलेज की फेलो डॉ श्रुति कपिला और ब्रिटिश अकादमी की पोस्ट डॉक्टोरल फेलो डॉ सौम्या सक्सेना भी मौजूद थीं।

    गोपाल सुब्रमणियम 2010 से 2014 तक भारत के लिए सॉलिसिटर-जनरल भी रहे। कार्यक्रम में उन्होंने यह कहते हुए चर्चा शुरू की कि "कानून का शासन" और "न्यायिक स्वतंत्रता" दो विचार हैं, ‌जो राष्ट्रों को बनाते या बिगाड़ते हैं।

    उन्होंने कहा, "सभी संविधानों का उद्देश्य सभी मनुष्यों का मानव के रूप में एक निश्चित समीकरण है, जो मौलिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने में सक्षम हैं। संविधान पूर्व-विद्यमान पहचान को मान्यता प्रदान करता है। हमें यह देखना होगा कि उस पृष्ठभूमि में इन दो अवधारणाओं का क्या अर्थ है।"

    भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम पतंजलि शास्त्री के शब्दों कि सुप्रीम कोर्ट "सजग प्रहरी" है, सुब्रमणियम ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश ने एक ऐसी अदालत के बारे में बात की थी, जो थे हमेशा सजग और चौकन्नी रही हो।

    अपने भाषण में उन्होंने आगे कानून के शासन के लिए एक राष्ट्र की प्रतिबद्धता के महत्व को दोहराया।

    "कानून के शासन के लिए प्रतिबद्धता न केवल लोकतंत्र की अवधारणा के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि एक सभ्य राज्य के विचार के लिए भी मूलभूत है।"

    सुब्रमणियम ने ब्रिटिश भारत में पैदा हुए कानून के शासन की व्याख्या की। उन्होंने पुट्टुस्वामी और "दुर्भाग्यपूर्ण" एडीएम जबलपुर मामले का उल्लेख किया।

    "एडीएम जबलपुर में शाामिल जज प्रतिभाशाली थे। केवल एक ही बहादुर जज ऐसा था, जिसने अपने असंतोष को जाहिर किया, जबकि अधिकांश ने राज्य के परोपकारी विचार पर शासन किया।"

    न्यायिक स्वतंत्रता के विषय पर सुब्रमणियम ने कहा कि संविधान का मूल आधार यह है‌ कि अपनी प्राकृतिक अवस्था में, सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान हैं। हालांकि, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ, उपद्रव और अराजकता आती है, और यही वह जगह है, जहां व्यवस्‍थ‌ित स्वतंत्रता आती है।

    सुब्रमणियम ने न्यायालयों में जजों की नियुक्तियों की प्रक्रिया के उद्भव की चर्चा की। प्रथम न्यायाधीशों के मामले, द्वितीय न्यायाधीशों के मामले से लेकरल राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के मामले की व्याख्या की और बताया कि यह कैसे कार्यकारी के संयोजन के साथ, भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा लिए गए निर्णयों पर निर्भर रहा है।

    उन्होंने बताया कि कैसे सुप्रीम कोर्ट में प्रक्रिया बिना किसी नियंत्रण के बनाई गई और केवल इस आधार पर आधारित थी कि कार्यकारी खुद को नियंत्रण में रखेगी।

    "यह आश्चर्य की बात हो सकती है कि शुरुआती वर्षों में, न्यायपालिका और कार्यकारी के बीच थोड़ा तनाव था। राष्ट्रपति ने मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशों के साथ सहमति व्यक्त की थी।"

    उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट के पहले पांच मुख्य न्यायाधीशों ने स्वतंत्रता के स्वर को विनम्रता के साथ स्थापित किया। इसने इस संस्थान को जनता के विश्वास का न्यायालय बना दिया।"

    स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णयों का उल्लेख करते हुए, सुब्रमणियम ने कहा कि कैसे संविधान के सिद्धांत सर्वोपरि रहे और न्यायालय ने सरकार के फैसलों को बिना झ‌िझक रद्द किया।

    उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट और कार्यकारी के बीच तनाव 1970 के दशक से शुरू हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट और कार्यकारी के बीच टकराव हुआ। चार फैसलों ने इस गिरावट को चिह्नित किया। सभी चार निर्णय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए थे।"

    सुब्रमणियम ने तब उल्लेख किया कि कैसे केशवानंद भारती मामले में लोकतंत्र के दो स्तंभों के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंच गया और एक महत्वपूर्ण परंपरा, वरिष्ठता का नियम, पहली बार तोड़ा गया और जस्टिस एएन रे तीन वरिष्ठ जजों को अपदस्थ करने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश बने।

    पूर्व अटॉर्नी-जनरल नीरेन डे पर, सुब्रमणियम ने कहा, "वह संविधान की एक औपचारिक व्याख्याकार थे। किसी भी कानून अधिकारी को स्वतंत्रता की लड़ाई के दौर की सत्ता और उत्पीड़न की गंभीरता को कभी नहीं भूलना चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाओं को हतोत्साहित करने पर एक सवाल का जवाब देते हुए, सुब्रमणियम ने कहा, "भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस मायने में अद्वितीय है कि अनुच्छेद 32 के तहत वह स्वयं एक मौलिक अधिकार है। यह एक अद्वितीय सुरक्षा है। उच्चतम न्यायालय की शक्तियां इतनी बृहद हैं।"

    सुब्रमणियम ने अपने भाषण के अंत में कहा, "अगर लोग संवैधानिक आदर्शों के लिए लड़ते हैं और बेहतर मांग करते हैं, तो मुझे उम्मीद है कि भविष्य हमें एक अधिक आदर्श संघ लाएगा। न्यायिक स्वतंत्रता संवैधानिकता का जीवद्रव्य है।"

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