(सेक्शन 340 सीआरपीसी) क्या सेक्शन 195 सीआरपीसी के तहत शिकायत दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच अनिवार्य है? सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच करेगी फैसला
LiveLaw News Network
27 Feb 2020 12:36 PM IST
क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 संभावित आरोपी को प्रारंभिक जांच और सुनवाई का अवसर प्रदान करती है? सुप्रीम की दो जजों की बेंच, जिसमें जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस मोहन एम शांतनगौदर शामिल हैं, ने ये सवाल बड़ी बेंच के हवाले किया है।
बेंच ने प्रारंभिक जांच की व्यापकता और दायरे पर भी सवाल उठाया है।
मौजूदा मामले में, डिप्टी कमिश्नर-कम-चीफ सेल्स कमिश्नर, तरन तारन ने, सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट, पट्टी को निर्देश दिया था कि वे एक पक्षकार के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज करवाएं। उनका आरोप था कि पक्षकार ने तहसील कर्मियों की मिलीभगत से एसडीएम-कम-सेल्स कमिश्नर के समक्ष एक अपील में जाली दस्तावेज जमा किए हैं।
हालांकि हाईकोर्ट ने यह कहते हुए उक्त प्राथमिकी को रद्द कर दिया था कि डिप्टी कमिश्नर-कम-चीफ सेल्स कमिश्नर ने अपील की सुनवाई में, सीआरपीसी की धारा 340, साथ में पढ़ें धारा 195 के संदर्भ में, ना खुद जांच की थी और ना ही अपने अधीनस्थ प्राधिकरण को अभियुक्त के खिलाफ ऐसी जांच करने का आदेश दिया था।
हाईकोर्ट ने माना एफआईआर इन प्रावधानों से प्रभावित हुई, क्योंकि यह बिना किसी जांच के दर्ज की गई थी और प्रतिवादी को भी अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया, इसलिए एफआईआर को खारिज कर दिया गया।
धारा 340 सीआरपीसी के प्रावधानों के मुताबिक, यदि न्यायालय की राय है कि धारा 195 की उप-धारा (1) के खंड (बी) में उल्लिखित किसी अपराध की जांच की जानी चाहिए, यदि प्रतीत होता है कि अपराध किया गया है, या उस अदालत में कार्यवाही के संबंध में, या जैसा मामला हो, कोर्ट की कार्यवाही में सबूत के रूप में पेश दस्तावेज के संदर्भ में, कोर्ट को, प्रारंभिक जांच के बाद, यदि कोई हो, जैसा आवश्यक लगे, जांच के नतीजों को दर्ज करे और फिर लिखित शिकायत दर्ज करवाए।
हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई करते हुए पीठ ने तीन जजों के दो पीठों द्वारा इस संबंध में उठाए गए परस्पर विरोधी विचारों का उल्लेख किया।
कोर्ट ने कहा, प्रावधान को स्वंतत्र रूप से पढ़ने पर, यह स्पष्ट है कि धारा 195 (1) (बी) में उल्लिखित अपराध के संबंध में शिकायत दर्ज करने से पहले मामले की प्रारंभिक जांच कराना (या नहीं करना) कोर्ट पर निर्भर करता है।
प्रीतिश बनाम महाराष्ट्र राज्य में (2002) 1 एससीसी 253 के मामले में यह कहा गया है कि उन व्यक्तियों को सुनवाई का अवसर प्रदान करने की कोई वैधानिक आवश्यकता नहीं है, जिनके खिलाफ न्यायालय अभियोजन की कार्यवाही शुरू करने के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज कर सकती है।
यह देखा गया है कि अगर अदालत को ऐसे नतीजों पर पहुंचने के लिए प्रारंभिक जांच करना आवश्यक लगता है तो ऐसा करने के लिए वह स्वतंत्र है, हालांकि ऐसी किसी प्रारंभिक जांच के अभाव में, कोर्ट के नतीजे, जिन्हें उसने अपनी राय के संबंध में इस्तेमाल किया है, निष्प्रभावी नहीं होंगे।
हालांकि, शरद पवार बनाम जगमोहन डालमिया, (2010) 15 एससीसी 290 मामले में, तीन न्यायाधीशों की एक अन्य पीठ ने कहा था कि जैसा धारा 340 सीआरपीसी के तहत विचार किया गया है, प्रारंभिक जांच करना आवश्यक है और साथ ही संभावित अभियुक्त को सुनवाई का अवसर प्रदान करना भी आवश्यक है।
अमरसंग नाथजी बनाम हार्दिक हर्षदभाई पटेल, (2017) 1 एससीसी 113 मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने प्रीतिश मामले में लिए गए विचार का ही अनुकरण किया।
तीन जजों की दो बेंच के निर्णयों में इन परस्पर विरोधी विचारों को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा:
किसी भी घटना में, यह देखते हुए कि शरद पवार (सुप्रा) मामले में तीन जजों की बेंच के फैसले में ऐसा कोई कारण नहीं बताया गया है कि उन्होंने सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच की आवश्यकता के संबंध में प्रीतिश (सुप्रा) मामले में एक कोऑर्डिनेटेड बेंच द्वारा व्यक्त की गई राय से अलग राय क्यों दी है। इकबाल सिंह मारवाह (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की टिप्पणियों को देखते हुए हमें यह आवश्यक लगता है कि मौजूदा मामले को विचारार्थ बड़ी बेंच के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, विशेष रूप से निम्नलिखित प्रश्नों के जवाब के लिए-
(i) क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 संभावित आरोपी को प्रारंभिक जांच और सुनवाई का अवसर प्रदान करती है?
(ii) ऐसी प्रारंभिक जांच की व्यापकता और दायरा क्या है?
पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 195 (3) के तहत 'न्यायालय' शब्द का अर्थ सिविल, राजस्व या आपराधिक न्यायालय है, और इसमें केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम के तहत गठित न्यायाधिकरण भी शामिल है।
केस टाइटल: पंजाब बनाम जसबीर सिंह
केस नं: CRIMINAL APPEAL NO.335 OF 2020
कोरम: जस्टिस अशोक भूषण और मोहन एम शांतनगौदर
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