आईपीसी की धारा 149 – किसी व्यक्ति को महज इसलिए गैर-कानूनी भीड़ का हिस्सा नहीं माना जा सकता कि उसने पीड़ित के ठिकाना बताया: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

3 Dec 2021 4:51 AM GMT

  • आईपीसी की धारा 149 – किसी व्यक्ति को महज इसलिए गैर-कानूनी भीड़ का हिस्सा नहीं माना जा सकता कि उसने पीड़ित के ठिकाना बताया: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने हत्या के एक मामले में एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए हाल ही में कहा है कि किसी व्यक्ति को महज इसलिए गैर-कानूनी जमावड़ा का हिस्सा नहीं माना जा सकता कि उसने हत्यारी भीड़ को पीड़ित का ठिकाना बताया था। उस व्यक्ति को गैर-कानूनी भीड़ के सामान्य उद्देश्य का साझेदार नहीं माना जा सकता।

    न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एमएम सुंदरेश की पीठ ने यह कहते हुए आगाह किया कि अदालतों को अपराध के सामान्य उद्देश्य को साझा करने के लिए अपराध के केवल निष्क्रिय दर्शकों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 149 के माध्यम से दोषी ठहराने की प्रवृत्ति से परहेज करना चाहिए।

    इस मामले (तैजुद्दीन बनाम असम सरकार) में, अपीलकर्ता उन 32 व्यक्तियों में से एक था, जिन्हें एक व्यक्ति की हत्या के लिए आईपीसी की धारा 149 के साथ पठित धारा 147/148/324/302/201 के तहत अपराधों के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।

    अपीलकर्ता की भूमिका यह थी कि उसने हत्यारे गिरोह को मृतक के स्थान के बारे में सूचित किया। ट्रायल कोर्ट ने यह मानते हुए उसे हत्या के लिए सजा सुनाई कि वह गैरकानूनी जमावड़ा के सामान्य उद्देश्य का हिस्सेदार है। इस फैसले को गौहाटी हाईकोर्ट की खंडपीठ ने भी बरकरार रखा था।

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर एक अलग दृष्टिकोण अपनाया। कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता का घर उस जगह के बगल में था जहां मृतक रह रहा था। अत: अपीलार्थी की मौके पर उपस्थिति स्‍पष्‍ट करने योग्‍य थी। अदालत ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि गिरोह घातक हथियारों से लैस था। इसलिए, अपीलकर्ता में पीड़ित के स्थान का खुलासा करने का पर्याप्त साहस नहीं हो सकता है।

    कोर्ट ने अपने फैसले में कहा,

    "हमारे विचार में, अपीलकर्ता के वकील ने सही तर्क दिया कि केवल यह तथ्य कि अपीलकर्ता इतना बहादुर नहीं था कि पीड़ित के छिपे होने को छुपा सके, वह उसे गैरकानूनी भीड़ का हिस्सा नहीं बनाता है।"

    'सुबल घोरई बनाम पश्चिम बंगाल सरकार' में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, यह देखा गया कि रचनात्मक दायित्व को निर्दोष दर्शकों के झूठे मामलों में फंसाने की हद तक नहीं बढ़ाया जा सकता है।

    कोर्ट ने देखा:

    "अदालत को केवल निष्क्रिय दर्शकों को दोषी ठहराने की संभावना से बचना चाहिए, जो गैरकानूनी जमावड़ा के सामान्य उद्देश्य का साझेदार नहीं था। उचित प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष परिस्थितियां होनी चाहिए जो अभियोजन के इस आरोप को साबित करते हों कि वे (आरोपी) गैरकानूनी जमावड़ा के सामान्य उद्देश्य का साझेदार है। सदस्यों को न केवल गैर-कानूनी भीड़ का हिस्सा होना चाहिए, बल्कि सभी चरणों में समान उद्देश्य साझा करना चाहिए। यह सदस्यों के आचरण और अपराध स्थल पर या उसके पास के व्यवहार, अपराध के मकसद, उनके द्वारा उठाए गए हथियार और इस तरह के अन्य प्रासंगिक विचार पर आधारित होना चाहिए।"

    वर्तमान मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता भीड़ के साथ नहीं आया था। उसके पास कोई हथियार नहीं था।

    कोर्ट ने कहा,

    "उसकी संलिप्तता का एकमात्र सबूत यह है कि उसने उस घर की ओर इशारा किया, जहां पीड़ित छिपा था। यह देखते हुए कि पूरी तरह से हथियारों से लैस एक उन्मादी भीड़ मृतक के शिकार के लिए निकली थी, अपीलकर्ता को मृतक को छिपाने या वह कहां है इस बारे में न बताने की दृष्टि से पर्याप्त बहादुर नहीं कहा जा सकता है। इसी बात के लिए अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 149 के तहत नहीं पकड़ा जा सकता था।"

    इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने उसकी दोषसिद्धि को रद्द कर दिया और माना कि वह बरी होने का हकदार है।

    केस का शीर्षक: तैजुद्दीन बनाम असम सरकार

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 702

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