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'मिसब्राडिंग' के आरोप में भी विक्रेता के पास अपने सैंपल्स का परीक्षण करवाने का अधिकारः सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network
30 Nov 2019 3:54 PM GMT
मिसब्राडिंग के आरोप में भी विक्रेता के पास अपने सैंपल्स का परीक्षण करवाने का अधिकारः सुप्रीम कोर्ट
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शीर्ष अदालत के समक्ष मुद्दा था कि केंद्रीय प्रयोगशाला द्वारा नमूनों के परीक्षण करवाने के अधिकार से इनकार किया जाना 'मिसब्रांडिंग' के अपराध में अपीलार्थी के खिलाफ कार्यवाही को रद्द किए जाने योग्य बनाता है?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जहां खाद्य वस्तुओं की सामग्री/घटक की जांच 'मिसब्राडिंग' के अपराध को साबित करने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है, जिसे खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम की धारा 11-13 के तहत निर्धारित किया गया है, वहां, ये ध्यान दिए बिना कि 'मिलावट' का आरोप है या नहीं, जांच की जानी ही चा‌हिए।

मेसर्स अल्केम लेबोरेटरीज लिमिटेड ने खाद्य अपमिश्रण निरोधक अधिनियम की धारा 16 (1) (ए) (ii), धारा 2 (ix) (g) और (ii) के साथ पढ़ें, के तहत मिसब्रांडेड खाद्य सामग्री बेचने के कथित अपराध में दर्ज शिकायत को रद्द कराने के लिए हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। हाइकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि 1954 अधिनियम की धारा 13 (2) के तहत केंद्रीय खाद्य प्रयोगशाला द्वारा नमूने की पुनर्जांच कराने का अधिकार केवल केवल एक 'मिलावटी' खाद्य सामग्री बेचने वाले विक्रेता को है, न कि 'मिसब्रांडेड' खाद्य सामग्री के विक्रेता को।

इसलिए जस्टिस मोहन एम शांतनगौदर और जस्टिस कृष्ण मुरारी की शीर्ष अदालत की पीठ के समक्ष ये मुद्दा था कि क्या 1954 अधिनियम की धारा 13 (2) के तहत केंद्रीय प्रयोगशाला द्वारा नमूनों के परीक्षण करवाने के अधिकार से इनकार किया गया, जो 'मिसब्रांडिंग' के अपराध में अपीलार्थी के खिलाफ कार्यवाही को रद्द किए जाने योग्य बनाता है?

अधिनियम की धारा 2 (ia) की तुलना करने पर जो 'मिलावटी' को पर‌िभाषित करती है और धारा 2 (ix) जो मिसब्राडिंग को परिभाषित करता है, अदालत ने पाया कि दोनों प्रावधानों के बीच ओवरलैप है, विशेषकर धारा 2 (ia)(a), जिसमें 'मिलावटी' की परिभाषा में ऐसे मामला शामिल है, जिसमें खाद्य सामग्री उस प्रकृति, पदार्थ या गुणवत्ता की नहीं हो, जैसा वो प्रस्तुत करता है, या होने का प्रतिनिधित्व करता है।

"इसलिए उदाहरण के लिए, ऐसे मामलों में जहां यह पाया जाता है कि एक खाद्य वस्तु में एक ऐसा अतिरिक्त घटक शामिल है, जिसे पैकेजिंग पर विज्ञापित नहीं किया गया है या इसके उलट, जहां किसी खाद्य वस्‍तु से एक ऐसा घटक गायब पाया जाता है, जिसे उस खाद्य वस्तु में शामिल किया जाना था, और इसलिए वो उस वस्तु की की लेबलिंग/पैकेजिंग में भी शामिल है, या जहां खाद्य वस्तु में निम्नतम गुणवत्ता का विकल्प का उपयोग किया गया है, जबकि लेबलिंग में बेहतर गुणवत्ता के मूल घटक का उपयोग करने को कहा गया है, ये मिलावट और मिसब्रांडिंग दोनों का मामला होगा।"

ये उदाहरणों की एक विस्तृत सूची नहीं है, लेकिन यह कहने के लिए पर्याप्त है कि कुछ स्थितियों में, यहां तक कि 'मिसब्रांडिंग' के अपराध को साबित करने के उद्देश्य से, खाद्य वस्तु के नमूने 1954 अधिनियम की धारा 11-13 के तहत निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार लेने होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे मामलों में यह निष्कर्ष निकालना संभव नहीं होगा कि निर्माता, विपणक या विक्रेता ने खाद्य वस्तु पर भ्रामक लेबल/ पैकेज बिना ये पता लगाए कि क्या सामग्री में मिलावट हुई है या नहीं, डाला दिया है?"

बेंच ने नोट किया कि धारा 13 (2) उन मामलों में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में शांत है जहां 'मिसब्राड‌िंग' साबित करने के लिए संबंधित खाद्य नमूनों के परीक्षण की आवश्यकता होती है, लेकिन 'मिलावट' के अनुरूप शुल्क नहीं लिया जाता है? अदालत ने कहा:

"यह अभियोजन पक्ष के लिए एक ओर बेतुका और भेदभावपूर्ण होगा, कि धारा 13 (1) के तहत सार्वजनिक विश्लेषक की रिपोर्ट पर 'मिसब्राडिंग' साबित करने के लिए भरोसा किया जाए, और दूसरी तरफ, दावा करें कि अभियुक्त धारा 13 (2) और 13 (3) के अनुसार उक्त रिपोर्ट को चुनौती देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता क्योंकि यह 'मिलावट' का मामला नहीं है। ऐसे हालात में, धारा 13 (2) में शामिल 'मिलावटी' शब्द को, जहां तक ये संबंधित खाद्य वस्तु के घटकों से संबंधित है, 'मिसब्रांडेड' समझा जाए, और धारा 13 के संबंधित खंडों को संपूर्णता के साथ अनुपालन किया जाए। इसलिए हमारा विचार है कि जहां खाद्य वस्तु की सामग्री/ घटक की जांच मिसब्राड‌िंग के अपराध को साबित करने के लिए 1954 अधिनियम की धारा 11-13 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का अभिन्न अंग है, वहां प्रक्रिया का अनुपालन किया जाना चाहिए है, 'मिलावट' का आरोप हो या ना हो। इसमें धारा 13 (2) के तहत केंद्रीय प्रयोगशाला से 'सेकंड ओप‌ीनियन' प्राप्त करने का अधिकार भी शामिल है।

वही परीक्षण किसी अन्य अपराध के संबंध में लागू होगा, जिसके लिए 1954 अधिनियम के तहत दंड निर्धारित है।

पीठ ने स्पष्ट किया कि यदि अपराध साबित करने के लिए खाद्य वस्‍तु के नमूने की आवश्यकता नहीं होगा, तब उपरोक्त नियम लागू नहीं होगा।

उदाहरण के लिए, यदि अपराध धारा 2 (ix)(h) के तहत 'किसी वस्‍तु के निर्माता या उत्पादक के रूप में किसी काल्पनिक व्यक्ति या कंपनी का नाम धारण' करने का है, तो ये आवश्यक नहीं है कि अपराध को साबित करने के लिए खाद्य सामग्री के घटकों का विश्लेषण किए जाए, ‌तब तक, जब तक कि अभियोजन पक्ष ये स्थापित करने में सक्षम हो कि असली निर्माता ने अपनी पहचान धोखे से छुप लिया है।

मामले के तथ्यों में, बेंच ने कहा कि विक्रेता को धारा 13 (2) के तहत जेली के नमूने के घटकों पर केंद्रीय प्रयोगशाला से सेकंड ओपीनियन प्राप्त करने के लिए आवेदन करने का अवसर मिलना चाहिए था। अपील की अनुमति देते हुए अदालत ने कहा कि धारा 13 (2) के तहत विक्रेता को अपने बहुमूल्य अधिकार से वंचित करने के कारण ये कार्यवाही को रद्द करने के लिए उपयुक्त मामला है।

र‌िटेलर धारा 20 ए के तहत आवदेन कर सकता है

इस मामले में, विक्रेता को अभियुक्त के रूप में फंसाने के लिए रिटेलर ने धारा 20 ए के तहत एक आवेदन दिया था, जिसकी अनुमति दी गई थी। इस संबंध में, अपील में तर्क यह था कि धारा 20 ए के तहत एक रिटेलर द्वारा आवेदन नहीं किया जा सकता था। फैसले में इस तर्क को 'गुमराह' करार दिया गया। कोर्ट ने कहाः

"1954 अधिनियम के प्रावधान स्पष्ट रूप से एक खाद्य वस्‍तु के 'विक्रेता' और 'निर्माता' के बीच अंतर करता है। धारा 20 ए का मुख्‍य उद्देश्य न्यायालय को खाद्य वस्तु के विक्रेता के ट्रायर के दरमियान निर्माता या वितरक को पक्षकार बनाने में सक्षम बनाना है, ताकि आपूर्ति श्रृंखला के सभी चरणों में मिलावट का पता लगाया जा सके और और दंडित किया जा सके।"

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