BREAKING| न्यायिक सेवा में प्रवेश के लिए 3 साल की प्रैक्टिस वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर
Shahadat
16 Jun 2025 1:41 PM IST

सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर कर उसके हाल के फैसले को चुनौती दी गई है। इस आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक सेवा (सिविल जज-जूनियर डिवीजन के पद) में प्रवेश के लिए उम्मीदवार के लिए वकील के रूप में 3 साल की प्रैक्टिस अनिवार्य की गई है।
याचिकाकर्ता ने तर्क देते हुए कहा कि रिकॉर्ड में स्पष्ट त्रुटियां हैं, जिसके कारण पुनर्विचार की आवश्यकता है। साथ ही उन्होंने यह भी प्रार्थना की कि पिछले पात्रता मानदंडों के तहत तैयारी करने वाले हाल के ग्रेजुएट (2023-2025) को अनुचित रूप से बाहर करने से बचने के लिए अनिवार्य तीन साल की प्रैक्टिस नियम को 2027 से ही लागू किया जाना चाहिए।
याचिका में कहा गया,
"तत्काल लागू होने से पूर्वव्यापी कठिनाई होती है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निष्पक्षता, वैध अपेक्षा और समान अवसर के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।"
अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ मामले में 20 मई को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) बीआर गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ द्वारा दिए गए फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की गई।
शेट्टी आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज किया गया
पुनर्विचार याचिकाकर्ता चंद्र सेन यादव प्रैक्टिसिंग एडवोकेट हैं। उन्होंने तर्क दिया कि शेट्टी आयोग द्वारा की गई कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों को नजरअंदाज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 3 साल की प्रैक्टिस की अनिवार्यता लागू की।
याचिकाकर्ता ने यह भी प्रस्तुत किया कि न्यायालय का निर्देश केवल कुछ हाईकोर्ट और राज्य सरकारों द्वारा दायर हलफनामों पर आधारित हैं, जिन्होंने न्यायिक सेवा में प्रवेश करने से पहले कानूनी प्रैक्टिस की शर्त को बहाल करने का समर्थन किया था। हालांकि, नागालैंड, त्रिपुरा राज्यों, पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट और छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा की गई विपरीत सिफारिशों, जिन्होंने उक्त आवश्यकता का विरोध किया था,उन पर न्यायालय द्वारा पूरी तरह से विचार नहीं किया गया।
पुनर्विचार याचिकाकर्ता के अनुसार, शेट्टी आयोग ने इस तथ्य पर विचार करते हुए प्रैक्टिस की आवश्यकता को हटाने की सिफारिश की थी कि न्यायालय का दौरा और इंटर्नशिप कानून की डिग्री के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पहलू पर विचार नहीं किया। साथ ही चूंकि उम्मीदवार सेवा में प्रवेश करने से पहले प्रशिक्षण लेते हैं, इसलिए अभ्यास की शर्त आवश्यक नहीं हो सकती है।
निर्णय किसी तथ्यात्मक डेटा या सांख्यिकी पर आधारित नहीं
यह भी तर्क दिया गया कि निर्णय में यह स्थापित करने के लिए कोई तथ्यात्मक डेटा, सांख्यिकी या अध्ययन का हवाला नहीं दिया गया कि नए लॉ ग्रेजुएट जज के रूप में खराब प्रदर्शन करते हैं। इसके अलावा, उन नए लॉ ग्रेजुएट की संख्या या सफलता दर पर कोई विचार नहीं किया गया, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से न्यायिक सेवाओं में अच्छा प्रदर्शन किया और प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद बेंच पर प्रभावी ढंग से सेवा की। इस प्रकार याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि निर्णय किसी ठोस सामग्री पर आधारित नहीं है और केवल व्यक्तिपरक, वास्तविक धारणाओं पर आधारित है।
याचिका में कहा गया,
"इस माननीय न्यायालय के समक्ष यह स्थापित करने के लिए कोई व्यापक डेटा नहीं रखा गया कि नए लॉ ग्रेजुएट या तीन साल के बार अनुभव के बिना उम्मीदवार न्यायिक भूमिकाओं में खराब प्रदर्शन कर रहे हैं, न ही ऐसी आवश्यकता के बिना भर्ती किए गए पहले बैचों की सफलता या विफलता का कोई मूल्यांकन किया गया। इस माननीय न्यायालय द्वारा दिनांक 20.05.2025 के अपने विवादित निर्णय के पैरा 62 में एमिक्स क्यूरी और अधिकांश हाईकोर्ट के वकीलों द्वारा व्यक्त सामान्य विचारों पर भरोसा करना कि न्यूनतम अभ्यास की आवश्यकता की पुनर्विचार करने और उसे बहाल करने का समय आ गया है, मनमाना है और न्यायिक प्रदर्शन के किसी भी अनुभवजन्य अध्ययन, वस्तुनिष्ठ मानदंड या सांख्यिकीय मूल्यांकन पर आधारित नहीं है।"
अनुपातहीन रूप से हाशिए पर पड़े समूहों को प्रभावित करता है
याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि यह निर्देश आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों और सामाजिक रूप से वंचित समुदायों, विशेष रूप से एससी/एसटी/ओबीसी के उम्मीदवारों को अनुपातहीन रूप से प्रभावित करता है। साथ ही तीन साल की मुकदमेबाजी प्रैक्टिस की आवश्यकता मनमाने ढंग से कानून फर्मों, पीएसयू या कॉर्पोरेट कानूनी भूमिकाओं में काम करने वाले लॉ ग्रेजुएट को उनके प्रासंगिक कानूनी अनुभव के बावजूद बाहर कर देती है।
यह तर्क दिया गया कि न्यायिक आदेश के माध्यम से सभी राज्यों और हाईकोर्ट पर एक समान, बाध्यकारी पात्रता शर्त लागू करके बिना किसी विधायी समर्थन या परामर्शी ढांचे के सुप्रीम कोर्ट ने एक नीति-निर्माता की भूमिका निभाई, जो अनुच्छेद 141 के दायरे से बाहर है।
याचिकाकर्ता के अनुसार, न्यायालय ने बिना यह साबित किए कि तीन साल की प्रैक्टिस के बिना प्रत्येक लॉ ग्रेजुएट को अयोग्य क्यों माना जाता है, लॉ ग्रेजुएट के एक पूरे वर्ग को एकमुश्त अयोग्य घोषित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) के अनुसार पेशा चुनने के अधिकार का उल्लंघन होता है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि चूंकि निर्णय किसी वस्तुनिष्ठ मानदंड पर आधारित नहीं है, इसलिए लगाया गया प्रतिबंध उचित नहीं है और मनमाना है।
याचिका एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड कुणाल यादव के माध्यम से दायर की गई।