मोटर दुर्घटना मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया एक सतत परमादेश से नहीं हो सकती, यह एक ही बार में होनी चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

18 Aug 2021 4:57 AM GMT

  • मोटर दुर्घटना मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया एक सतत परमादेश से नहीं हो सकती, यह एक ही बार में होनी चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मोटर वाहन अधिनियम के तहत मुआवजे का निर्धारण करते समय, एक अदालत बीमा कंपनी को घायल दावेदार के कृत्रिम अंग के निरंतर रखरखाव का निर्देश नहीं दे सकती है।

    न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा कि इस तरह के मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया, बोलचाल की भाषा में, निरंतर परमादेश द्वारा नहीं हो सकती है, और इस तरह का निर्धारण एक ही बार में होना चाहिए।

    इस मामले में, एक दावेदार द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए, हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि उसे आजीवन वारंटी युक्त अच्छी गुणवत्ता का कृत्रिम अंग दिया जाएगा। यह भी निर्देश दिया गया था कि यदि कोई मरम्मत या प्रतिस्थापन किया जाना है, तो वह बीमा कंपनी द्वारा किया जाना चाहिए और यह कि पीड़ित से वर्ष में कम से कम दो बार कृत्रिम अंग के काम करने की स्थिति के बारे में एक ईमेल के साथ पूछताछ करनी चाहिए, जिसमें पता और टेलीफोन नंबर निर्दिष्ट हो।

    बीमा कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील दायर करते हुए कहा कि ये निर्देश कृत्रिम अंग के निरंतर रखरखाव के आदेश के समानर है, जिसकी निगरानी उसे करनी होगी।

    'नागप्पा बनाम गुरुदयाल सिंह और अन्य, (2003) 2 एससीसी 274' और 'सपना बनाम यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2008) 7 एससीसी 613' के मामलों में दिये गये फैसलों पर भरोसा जताते हुए यह दलील दी गयी थी कि उक्त अधिनियम के तहत मुआवजे का निर्धारण करते समय एक बार अंतिम निर्णय पारित हो जाने के बाद एक और निर्णय पारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। यह भी दलील दी गयी थी कि उसी वक्त भविष्य की आशंकाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए था।

    बेंच ने कहा,

    "हमारे विचार में, इस तरह के मुआवजे के निर्धारण की प्रक्रिया, बोलचाल के अर्थ में एक सतत परमादेश द्वारा नहीं हो सकती है और इसका निर्धारण एक ही बार में होना चाहिए। उपरोक्त सिद्धांत पर न तो असहमति है, न ही प्रतिवादियों द्वारा विरोध किया गया है, जो अनुरोध किया गया है वह यह है कि यदि आवश्यक हो तो कृत्रिम अंग के रखरखाव / प्रतिस्थापन के लिए एकमुश्त राशि तय करने का प्रावधान होना चाहिए। हम सबमिशन से सहमत हैं और एक बड़े कैनवास में यह निर्देश देना उचित समझते हैं कि कृत्रिम अंग की सुविधा प्रदान करने के ऐसे मामलों में, इस तरह के रखरखाव के लिए उचित राशि निर्धारित की जा सकती है।"

    इस प्रकार पीठ ने इन निर्देशों को रद्द कर दिया और कहा कि मुआवजे के लिए राशि का निर्धारण करते समय कृत्रिम अंग के रखरखाव / प्रतिस्थापन के लिए आवश्यक राशि के निर्धारण द्वारा इसे प्रतिस्थापित किया जाएगा।

    अदालत ने दावेदार को एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया जिसमें उसके द्वारा खरीदे गए कृत्रिम अंग की लागत के साथ-साथ कंपनी की ओर से दिये गये उन जरूरी दस्तावेज शामिल हों, जहां से उसने कृत्रिम अंग खरीदे हों, ताकि यह पता चल सके कि किस तरह के रखरखाव / प्रतिस्थापन की आवश्यकता होगी।

    एक अन्य मामले में, हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि दुर्घटना की तारीख से दावेदार को उसके शेष जीवन के लिए न्यूनतम मजदूरी के आधार पर दो अर्ध-कुशल श्रमिकों की सहायता प्रदान की जानी है। यह भी निर्देश दिया गया कि बीमा कंपनी द्वारा 60 लाख रुपये की राशि ब्याज वाली जमा राशि में रखी जानी चाहिए, जिसमें से लगभग 50,000 रुपये प्रति माह ब्याज के रूप में सहायकों के खर्चों को पूरा करने के लिए उपलब्ध हो पायेगा।

    कोर्ट ने बीमा कंपनी की ओर से दायर अपील को मंजूर करते हुए कहा,

    "यह कड़ाई से एक सतत दिशा की प्रकृति में नहीं हो सकता है, लेकिन निरंतर आवश्यकता के आधार पर, आधारित एकमुश्त राशि जमा करने के लिए निर्देशित किया गया है, जिसके रिटर्न का उपयोग किया जाना है। हमारा विचार है कि यह पालन करने के लिए उपयुक्त रास्ता नहीं है।"

    कोर्ट ने यह भी देखा कि हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार को यह जांचने का भी निर्देश दिया था कि जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हैं उन विकलांग किशोरों को क्या स्थायी रूप से सहायता प्रदान करने के संबंध में कोई सरकारी नीति हो सकती है।

    कोर्ट ने कहा,

    "हम यह भी पाते हैं कि बड़े मुद्दों की जांच करने की मांग करते हुए, विद्वान न्यायाधीश ने उस संबंध में तैयार की जाने वाली सरकारी नीति के पहलू में प्रवेश किया है। यह वास्तव में मोटर दुर्घटना दावा कार्यवाही में राशि के निर्धारण के मामले में अधिकार क्षेत्र से परे है, लेकिन व्यापक दायरे में इसमें एक जनहित याचिका का रंग है। इस प्रकार, हम इसे उचित मानते हैं कि जनहित याचिका से निपटने वाली बेंच द्वारा इस पहलू की जांच की जानी चाहिए, क्योंकि हमारे सामने मौजूद प्रतिवादी के मामले तक सीमित रखने के बजाय इसके व्यापक पहलुओं को निर्धारित करना होगा।"

    केस: एचडीएफसी एर्गो जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम मुकेश कुमार; सीए 4576/2021

    साइटेशन: एलएल 2021 एससी 385

    कोरम: न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय

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