पूजा स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को दी गई चुनौती के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी कहा, केवल नोटिस जारी करने मात्र से अल्पसंख्यकों के मन में ख़ौफ़ पैदा होगा

LiveLaw News Network

29 July 2020 10:24 AM GMT

  • पूजा स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को दी गई चुनौती के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी कहा, केवल नोटिस जारी करने मात्र से अल्पसंख्यकों के मन में ख़ौफ़ पैदा होगा

    हिंदू पुजारियों के संगठन की एक याचिका के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में एक आवेदन दायर किया गया है। हिंदू पुजारियों की याचिका में पूजा स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धारा 4 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई है।

    पीस पार्टी ऑफ़ इंडिया ने यह अर्ज़ी दायर की है और इसमें सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया गया है कि वह मूल याचिका पर कोई नोटिस जारी नहीं करे क्योंकि इससे मुस्लिम समुदाय में ख़ौफ़ पैदा होगा और इससे देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नुक़सान पहुंचेगा।

    अधिनियम की धारा 4 (2) का प्रावधान है-

    "अधिनियम के प्रारंभ होने पर, 15 अगस्त, 1947 को मौजूद, किसी भी पूजा स्‍‌‌थल के धार्मिक चरित्र के रूपांतरण के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही, यदि किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य के समक्ष लंबित है, वह समाप्त होगा और किसी भी ऐसे मामले के संबंध में या किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में इस प्रकार के किसी भी मामले के संबंध में या उसके खिलाफ कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही नहीं होगी।

    यदि कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही, इस आधार पर स्थापित या दायर की गई हो कि किसी इस प्रकार के स्थान के धार्मिक चरित्र में रूपांतरण 15 अगस्त 1947 के बाद हुआ है, इस अधिनियम के प्रारंभ होने पर लंबित है, ऐसा मुकदमा अपील या अन्य कार्यवाही उप-धारा (1) के प्रावधानों के अनुसार निस्तार‌ित की जाएगी।" याचिकाकर्ता, जिसने हिंदू धर्म के अनुयायी होने का दावा किया है का तर्क है कि संसद ने उक्त प्रावधान के निर्माण के जर‌िए अधिनियम को लागू करने के लिए पूर्वव्यापी प्रभाव के साथ एक कट ऑफ डेट बनाई है, जो कि 15 अगस्त 1947 ‌है, यह घोषणा करते हुए कि पूजा स्थल का चरित्र, जो कि 15 अगस्त 1947 को है, को बनाए रखा जाएगा और 15 अगस्त 1947 से पहले कानून तोड़ने वालों या असामाजिक तत्वों द्वारा धार्मिक संपत्त‌ियों पर किए गए अतिक्रमण के खिलाफ किसी विवाद के संबंध में कोई मुकदमा या कोई कार्यवाही हाईकोर्ट समेत किसी भी कोर्ट में नहीं रहेगी।"

    इस प्रकार की कार्यवाही समाप्त हो जाएगी, और आगे, यदि कोई मुकदमा, अपील या कार्यवाही इस आधार पर दायर की जाती है कि धार्मिक स्थान का रूपांतरण 15 अगस्त 1947 के बाद और 18 सितंबर 1991 से पहले हुआ है (अधिनियम के प्रवर्तन की तारीख), 15 अगस्त 1947 को विद्यमान स्थिति को बनाए रखने के लिए धारा 4 के उप खंड (1) के संदर्भ में इसका निस्तारण किया जाएगा। याचिका में दलील दी गई है, "उक्त अधिनियम ने हिंदुओं की धार्मिक संपत्ति पर एक अन्य धर्म द्वारा ताकत का इस्तेमाल कर किए गए अतिक्रमण के खिलाफ अधिकार और उपचार को रोक दिया है।

    इसका नतीजा यह है कि हिंदू श्रद्धालु सिविल कोर्ट में या भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत माननीय उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अतिवादियों के ‌खिलाफ किसी भी मुकदमे को स्थापित कर अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा सकते। उन हिंदू बंदोबस्तों, मंदिरों, मठों आदि के धार्मिक चरित्र को दोबारा वापस नहीं पा सकते हैं, जिन्हें 15 अगस्त 1947 के पहले अतिक्रमण किया गया है। इस प्रकार गैरकानूनी और बर्बर कार्य हमेशा जारी रहेंगे।"

    पीस पार्टी का कहना है कि याचिकाकर्ता ऐसे धार्मिक स्थलों को निशाना बना रहे हैं जो मुसलमानों के हैं और वह इस मामले में पक्षकार बनाए जाने का आग्रह करता है क्योंकि उसका मानना है कि धारा 4 की प्रकृति धर्मनिरपेक्ष है।

    यह कहा गया कि हिंदू पुजारी संगठन अदालत को सैकड़ों साल पुराने मामले में घसीटना चाहता है और इस तरह देश में धार्मिक असहिष्णुता के आधार पर तनाव पैदा करना चाहता है।

    याचिका में कहा गया है कि अगर इस रिट याचिका को स्वीकार कर लिया गया तो इससे एक ऐसा माहौल बनेगा कि हर धर्म उस संरचना पर अपने दावे पेश करेगा जिसकी प्रकृति इस समय दूसरे धर्म-सी है।

    पीस पार्टी ने कोर्ट से कहा कि वह आवेदक को एक पक्षकार के रूप में शामिल कर सकता है और देश की धर्मनिरपेक्षता और सभी समुदायों में सद्भाव क़ायम करने के लिए मूल याचिका को उसे ख़ारिज कर देना चाहिए।

    ज़मीयत उलमा-ए-हिंद के बाद पीस पार्टी दूसरा आवेदक है जो इस मामले में पक्षकार बनना चाहता है।

    यह ग़ौर करने वाली बात है कि अयोध्या फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल अधिनियम की संवैधानिकता की पुष्टि की थी और कहा था कि यह क़ानून धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए पास किया गया है।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "…धर्म स्थल अधिनियम को पास करने का एक उद्देश्य है। यह क़ानून हमारे इतिहास और देश के भविष्य से संवाद करता है। हम अपने इतिहास के बारे में जानते हैं और यह कि देश को इससे दो-चार होने की ज़रूरत है…ऐतिहासिक ग़लतियों को लोग क़ानून को अपने हाथ में लेकर सही नहीं कर सकते। पूजा स्थलों के चरित्र को सुरक्षित करने के लिए संसद ने स्पष्ट कहा है कि इतिहास और उसकी ग़लतियों को उपकरण बनाकर वर्तमान और भविष्य को उत्पीड़ित नहीं किया जा सकता है।"

    इसके अनुरूप सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम के बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज न्यायमूर्ति डीवी शर्मा के असहमति के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा था कि यह अधिनियम उन मामलों पर रोक नहीं लगाता जिसमें इस अधिनियम के लागू होने के पहले ही घोषणा की मांग की गई थी या अधिकारों को लागू किए जाने की मांग की गई थी और जो अधिनियम के लागू होने के पहले ही दायर किए गए थे।

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