सुप्रीम कोर्ट में पूजा स्‍थल (विशेष प्रावधान) अध‌िनियम की धारा 4 की संवैधानिकता को चुनौती, याचिका में दावा- प्रावधान हिंदुओं के साथ भेदभाव करता है

LiveLaw News Network

12 Jun 2020 5:33 PM GMT

  • National Uniform Public Holiday Policy

    Supreme Court of India

    सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें पूजा स्‍थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की धारा 4 की संवैधानिक वैधता को अनुच्छेद 14, 15, 25, 26 और 29 (1) के आधार पर चुनौती दी गई है। याचिका में दलील दी गई है कि उक्त अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता।

    अधिनियम की धारा 4 (1) में कहा गया है- "एतद् द्वारा यह घोषणा की जाती है कि 15 अगस्त 1947 को विद्यमान पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र वैसा ही रहेगा जैसा उस दिन था।"

    अधिनियम की धारा 4 (2) का प्रावधान है- "अधिनियम के प्रारंभ होने पर, 15 अगस्त, 1947 को मौजूद, किसी भी पूजा स्‍‌‌थल के धार्मिक चरित्र के रूपांतरण के संबंध में कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही, यदि किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य के समक्ष लंबित है, वह समाप्त होगा, और किसी भी ऐसे मामले के संबंध में या किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में इस प्रकार के किसी भी मामले के संबंध में या उसके खिलाफ कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही नहीं होगी;

    यदि कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही, इस आधार पर स्थापित या दायर की गई हो कि किसी इस प्रकार के स्थान के धार्मिक चरित्र में रूपांतरण 15 अगस्त 1947 के बाद हुआ है, इस अधिनियम के प्रारंभ होने पर लंबित है, ऐसा मुकदमा अपील या अन्य कार्यवाही उप-धारा (1) के प्रावधानों के अनुसार निस्तार‌ित की जाएगी।"

    याचिकाकर्ता, जिसने हिंदू धर्म के अनुयायी होने का दावा किया है, का तर्क है कि संसद ने उक्त प्रावधान के निर्माण के जर‌िए अधिनियम को लागू करने के लिए पूर्वव्यापी प्रभाव के साथ एक कट ऑफ डेट बनाई है, जो कि 15 अगस्त 1947 ‌है, यह घोषणा करते हुए कि पूजा स्थल का चरित्र, जो कि 15 अगस्त 1947 को है, को बनाए रखा जाएगा और 15 अगस्त 1947 से पहले कानून तोड़ने वालों या असामाजिक तत्वों द्वारा धार्मिक संपत्त‌ियों पर किए गए अतिक्रमण के खिलाफ किसी विवाद के संबंध में कोई मुकदमा या कोई कार्यवाही हाईकोर्ट समेत किसी भी कोर्ट में नहीं रहेगी।

    इस प्रकार की कार्यवाही समाप्त हो जाएगी, और आगे, यदि कोई मुकदमा, अपील या कार्यवाही इस आधार पर दायर की जाती है कि धार्मिक स्थान का रूपांतरण 15 अगस्त 1947 के बाद और 18 सितंबर 1991 से पहले हुआ है (अधिनियम के प्रवर्तन की तारीख), 15 अगस्त 1947 को विद्यमान स्थिति को बनाए रखने के लिए धारा 4 के उप खंड (1) के संदर्भ में इसका निस्तारण किया जाएगा।

    याचिका में दलील दी गई है, "उक्त अधिनियम ने हिंदुओं की धार्मिक संपत्ति पर एक अन्य धर्म द्वारा ताकत का इस्तेमाल कर किए गए अतिक्रमण के खिलाफ अधिकार और उपचार को रोक दिया है। इसका नतीजा यह है कि हिंदू श्रद्धालु सिविल कोर्ट में या भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत माननीय उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए अतिवादियों के ‌खिलाफ किसी भी मुकदमे को स्थापित कर अपनी शिकायत दर्ज नहीं करा सकते। उन हिंदू बंदोबस्तों, मंदिरों, मठों आदि के धार्मिक चरित्र को दोबारा वापस नहीं पा सकते हैं, जिन्हें 15 अगस्त 1947 के पहले अतिक्रमण किया गया है। इस प्रकार गैरकानूनी और बर्बर कार्य हमेशा जारी रहेंगे।"

    यह आग्रह किया गया है कि संसद ने उक्त प्रावधान का निर्माण कर, न्यायालय की प्रक्रिया के माध्यम से विवाद के समाधान के बिना, मुकदमे और कार्यवाही को रद्द कर दिया है, जबकि यह असंवैधानिक है और संसद की कानून बनाने की शक्ति से परे है, कारण यह कि उक्त प्रावधान को पूर्वव्यापी प्रभाव के साथ लागू नहीं किया जा सकता है, और लंब‌ित विवाद के समाधान के उपचार, उत्पन्न होने पर संसद द्वारा रोक नहीं लगाई जा सकती है, और संसद पीड़ित व्यक्तियों के लिए दरवाजे बंद नहीं कर सकती है और संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 के तहत अपीलीय न्यायालयों और संवैधानिक न्यायालयों को दी गई शक्ति को छीन नहीं सकती है।

    याचिका में कहा गया है कि उक्त अधिनियम वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों और धार्मिक शास्त्रों में निहित हिंदू कानून के मूल सिद्धांत को नष्ट कर देता है, जो कि मूर्ति सर्वोच्च सत्ता का प्रतिनिधित्व करती है और इसलिए इसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता है और देवता को उनकी संपत्ति से कोई भी शासक या राजा भी बाहर नहीं कर सकता है। हिंदू भक्तों को अनुच्छेद 25 के तहत एक मौलिक अधिकार है कि वे देवता की पूजा इस स्थान पर करें और नैतिकता, स्वास्थ्य और सार्वजनिक व्यवस्था के अधीन धार्मिक उद्देश्यों के लिए देवता की संपत्ति का उपयोग करें।

    याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि इस न्यायालय के कई निर्णयों से यह अच्छी तरह से स्थापित होता है कि न्यायिक उपचार का अधिकार राज्य द्वारा छीना नहीं जा सकता है और अनुच्छेद 32 और 226 के तहत संवैधानिक न्यायालयों को प्राप्त शक्ति को कुंठित नहीं किया जा सकता है।

    विष्णु शंकर जैन और हरि शंकर जैन के माध्यम से याचिका पर जोर दिया गया है,

    "अधिनियम को लागू करते समय संसद ने अयोध्या की विवादित संपत्ति को बाहर रखा, जहां हिंदू मंदिर निर्माण के ‌लिए संघर्ष कर रहे हैं, बड़े पैमाने पर सार्वजनिक आंदोलन किए गए ‌थे और वही देश के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर रहा था। इस माननीय न्यायालय ने अंतत: अयोध्या विवाद पर 09 नवंबर 2019 को फैसला दिया था। माननीय न्यायालय ने हिंदुओं के दावे को ठोस पाया और विध्वंस के लगभग 500 वर्षों के बाद नए मंदिर का निर्माण होने जा रहा है। यदि ऐसा निर्णय नहीं लिया गया होता तो हिंदू भक्तों को न्याय से वंचित होना पड़ता। इसलिए सिविल या उच्च न्यायालय के पास जाने के अधिकार पर कोई प्रतिबंध कानून के शासन के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है, जो कि कल्याणकारी राज्य का एक आवश्यक घटक है।"

    याचिका का मुख्य आधार यह है कि उक्त अधिनियम भारत के संविधान के ख‌िलाफ है-

    I.भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत गारंटीकृत हिंदुओं की पूजा के अधिकार का उल्लंघन करता है।

    II.भारत के संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत

    हिंदू समुदाय को अन्य समुदायों द्वारा हड़पे गए धार्मिक स्‍थलों के रखरखाव से वं‌चित करता है।

    III.कोर्ट के माध्यम से पूजा और संपत्ति से जुड़े स्थानों को वापस लेने के लिए हिंदुओं के उपचार को छीनता है, जो मूल रूप से एक देवता से संबंधित हैं, और भक्तों द्वारा कई तरीकों से लगातार पूजा की जा रही है।

    IV.भारत के सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से जुड़े अपने पूजा स्थल को वापस लेने से हिंदू समुदाय के सदस्यों को वंचित करता है।

    V. भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत कानून के समक्ष मुस्लिम समुदाय की तुलना में हिंदुओं के साथ भेदभाव करता है।

    VI.हिंदुओं के अधिकारों को सीमित कर आक्रमणकारियों की अवैध और बर्बर कार्रवाई को मान्यता देता है।

    VI. हिंदू कानून की अवधारणा का उल्लंघन करता है कि 'मंदिर की संपत्ति कभी समाप्त नहीं होती है, भले ही उस पर सैकड़ों वर्षों तक अजनबियों का कब्जा रहे। राजा भी मंदिरों को उनके गुणों से वंचित नहीं कर सकते। वह मूर्ति / देवता जो सर्वोच्च ईश्वर का अवतार है और एक न्यायवादी व्यक्ति है, 'अनंत- कालातीत' का प्रतिनिधित्व करता है, यह समय की सीमाओं तक सीमित नहीं हो सकता। '

    VII.वेदों-पुराणों, उपनिषदों और हिंदू कानून के अन्य स्रोतों के अनुसार, यह एक मान्यता प्राप्त सिद्धांत है कि 'देवता की संपत्ति देवता की संपत्ति ही बनी रहती है' और किसी का कब्जा मान्य नहीं होता।

    IX.देवता और उपासक दोनों का अधिकार छीन लेता है, जबकि संसद संवैधानिक न्यायालयों की शक्ति को नहीं छीन सकती है।

    X. संविधान के अनुच्छेद 14 में सन्निहित समानता के अध‌िकार का उल्लंघन करता है और भारत के संविधान द्वारा स्वीकार किए गए धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है।

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