सीपीसी का आदेश VII नियम 11: वादपत्र को खारिज करना होगा अगर इसमें मांगी गयी राहत कानून के तहत नहीं दी जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

22 Sep 2021 5:15 AM GMT

  • सीपीसी का आदेश VII नियम 11: वादपत्र को खारिज करना होगा अगर इसमें मांगी गयी राहत कानून के तहत नहीं दी जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक अदालत को एक वादपत्र खारिज करना होगा यदि उसे लगता है कि इसमें मांगी गई कोई भी राहत कानून के तहत वादी को नहीं दी जा सकती है।

    न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति बीआर गवई की पीठ ने कहा कि ऐसे मामले में, दिखावटी मुकदमेबाजी को समाप्त करना आवश्यक होगा ताकि आगे न्यायिक समय बर्बाद न हो।

    कोर्ट ने कहा कि सीपीसी के आदेश VII नियम 11 का अंतर्निहित उद्देश्य यह है कि जब कोई वादी कार्रवाई के कारण का खुलासा नहीं करता है, तो अदालत वादी को अनावश्यक रूप से मुकदमे को लंबा खींचने की अनुमति नहीं देगी।

    इस मामले में, वादी द्वारा कलकत्ता हाईकोर्ट के समक्ष एक दीवानी मुकदमा दायर किया गया था जिसमें फर्म "सूरजमल नागरमल" की संपत्तियों और परिसंपत्तियों के संबंध में विभिन्न राहतों का दावा किया गया था। वादी का मामला, जिसके माध्यम से वादी दावा कर रहे थे, यह है कि साझेदारी फर्म के तीन मूल भागीदारों के निधन के बावजूद प्रतिवादी साझेदारी फर्म का व्यवसाय जारी रखे हुए हैं।

    प्रतिवादियों ने इस आधार पर वाद को खारिज करने की मांग करते हुए आवेदन दायर किया कि वाद कार्रवाई के किसी भी कारण का खुलासा नहीं करता है, और जैसा कि वाद में राहत का दावा किया गया है, वह प्रदान नहीं की जा सकती है। हालांकि एकल पीठ ने इन आवेदनों को खारिज कर दिया था, लेकिन खंडपीठ ने एकल पीठ के फैसले को पलटते हुए अपील स्वीकार कर ली थी।

    अपील में, अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि खंडपीठ ने आक्षेपित निर्णय और आदेश में, यह पता लगाने के लिए लगभग एक मिनी ट्रायल किया है कि क्या वाद में दावा की गई राहत दी जा सकती है या नहीं। कि, सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत आवेदन पर विचार करते समय इस तरह की कवायद की अनुमति नहीं है। दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि, यदि वाद में मांगी गई राहतें प्रदान नहीं की जा सकतीं, तो न्यायालय के पास वादपत्र को अस्वीकार करने का एकमात्र विकल्प उपलब्ध है।

    इस संबंध में, पीठ ने 'टी. अरिवंदनम बनाम टी.वी. सत्यपाल (1977) 4 एससीसी 467' और 'पर्ललाइट लाइनर्स (पी) लिमिटेड बनाम मनोरमा सिरसी (2004) 3 एससीसी 172)' के निर्णयों का उल्लेख किया और कहा:

    15. इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि इस न्यायालय ने यह माना है कि वाद में किए गए कथनों का पठन न केवल औपचारिक होना चाहिए, बल्कि सार्थक भी होना चाहिए। यह माना गया है कि यदि चालाकी से की गयी ड्राफ्टिंग ने कार्रवाई के कारण का भ्रम पैदा किया है, और उसे पढ़ने से स्पष्ट पता चलता है कि मुकदमा करने के स्पष्ट अधिकार का खुलासा नहीं करने के मद्देनजर दलीलें स्पष्ट रूप से कष्टप्रद और गुणहीन हैं, तो अदालत को चाहिए सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करें। यह व्यवस्था दी गयी है कि इस तरह के वाद को पहली सुनवाई में ही जड़ से उखाड़ फेंकना होता है।

    17. इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि अदालत को यह पता लगाना है कि क्या तथ्यों की पृष्ठभूमि में, वाद में किये गये दावे के अनुरूप वादी को राहत दी जा सकती है। यह माना गया है कि अगर अदालत को पता चलता है कि वादी को कानून के तहत वाद में किये गये दावे में से को कोई भी राहत नहीं दी जा सकती है, तो सवाल यह उठता है कि क्या इस तरह के मुकदमे को जारी रखने और ट्रायल की अनुमति दी जानी चाहिए। इस न्यायालय ने उक्त प्रश्न का उत्तर यह कहते हुए दिया कि इस तरह के मुकदमे को शुरू में ही खारिज कर दिया जाना चाहिए। इसलिए, इस न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के मुकदमा खारिज करने और अपीलीय अदालत द्वारा ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराने के आदेश को को बरकरार रखा, जिससे ट्रायल कोर्ट के फैसले की पुष्टि हुई। इस कोर्ट ने उच्च न्यायालय की खंडपीठ द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें उसने निचली अदालत और अपीलीय अदालत के समवर्ती आदेशों को रद्द कर दिया था और मुकदमे को सुनवाई के लिए निचली अदालत में वापस भेज दिया था।

    कोर्ट ने कहा कि यह कलकत्ता हाईकोर्ट की खंडपीठ के साथ सहमत है जो इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि वाद में मांगी गई राहत नहीं दी जा सकती।

    अपील को खारिज करते हुए अदालत ने आगे कहा:

    20. इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि इस न्यायालय ने माना है कि दीवानी कार्रवाई को समाप्त करने के लिए अदालत को दी गई शक्ति कठोर है, और सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत उल्लिखित शर्तों का कड़ाई से पालन करने की आवश्यकता है। हालांकि, सीपीसी के आदेश VII नियम 11 के तहत, यह निर्धारित करने के लिए अदालत को जिम्मेदारी दी जाती है कि क्या वादपत्र शिकायत में दिए गए कथनों की जांच करके, विश्वसनीय दस्तावेजों के संयोजन के साथ कार्रवाई के कारण का खुलासा करता है, या क्या मुकदमा किसी भी कानून द्वारा प्रतिबंधित है। इस कोर्ट ने माना है कि सीपीसी के आदेश VII नियम 11 का अंतर्निहित उद्देश्य यह है कि जब कोई वादपत्र कार्रवाई के कारण का खुलासा नहीं करता है, तो अदालत वादी को अनावश्यक रूप से कार्यवाही को लंबा करने की अनुमति नहीं देगी। यह माना गया है कि ऐसे मामले में फर्जी मुकदमे को समाप्त करना आवश्यक होगा ताकि आगे न्यायिक समय बर्बाद न हो।

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 483

    केस का नाम: राजेंद्र बाजोरिया बनाम हेमंत कुमार जालान

    केस नं./ दिनांक: सीए 5819-5822/2021; / 21 सितंबर 2021

    कोरम: जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस बीआर गवई

    वकील: सीनियर एडवोकेट गोपाल जैन, सीनियर एडवोकेट डॉ. ए.एम. सिंघवी, के.वी. विश्वनाथन, गोपाल सुब्रमण्यम (प्रतिवादियों के लिए)

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