'रचनात्मक आलोचना नहीं': जस्टिस अभय ओक ने संजीव सान्याल द्वारा न्यायपालिका को "विकसित भारत की राह में सबसे बड़ी बाधा" बताए जाने पर कहा

Shahadat

29 Oct 2025 10:37 PM IST

  • रचनात्मक आलोचना नहीं: जस्टिस अभय ओक ने संजीव सान्याल द्वारा न्यायपालिका को विकसित भारत की राह में सबसे बड़ी बाधा बताए जाने पर कहा

    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अभय एस. ओक ने अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल की इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त की कि न्यायपालिका 'विकसित भारत' के सपने की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

    सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित "स्वच्छ वायु, जलवायु न्याय और हम - एक सतत भविष्य के लिए एक साथ" विषय पर एक व्याख्यान में बोलते हुए जस्टिस ओक ने कहा कि प्रत्येक नागरिक को न्यायपालिका की रचनात्मक आलोचना करने का अधिकार है। हालांकि, सान्याल की आलोचना अरचनात्मक थी, क्योंकि उन्होंने ऐसा कोई विशिष्ट आदेश या आदेश नहीं दिया, जो उनके अनुसार देश के विकास में बाधा डालता हो।

    सान्याल का नाम लिए बिना जस्टिस ओक ने कहा,

    "इस व्यक्ति को उन न्यायिक आदेशों के उदाहरण देने चाहिए, जो उनके अनुसार, विकसित भारत के रास्ते में रुकावटें पैदा कर रहे हैं। उन्हें उन आदेशों का ब्यौरा देना चाहिए। अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो उनकी आलोचना रचनात्मक आलोचना बन जाती, जिसका स्वागत होता।"

    जस्टिस ओक ने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायपालिका समीक्षा के लिए खुली है।

    उन्होंने कहा,

    "भारत के प्रत्येक नागरिक को न्यायपालिका और उसके आदेशों की रचनात्मक आलोचना करने का अधिकार है। हमें किसी भी कीमत पर इस अधिकार का समर्थन करना चाहिए।"

    हालांकि, उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि बिना किसी विशिष्ट उदाहरण के एक सामान्य दावा रचनात्मक आलोचना नहीं है।

    उन्होंने कहा,

    "लेकिन यह रचनात्मक आलोचना नहीं है, जब आप एक ही वाक्य में कह देते हैं कि ऐसे अदालती आदेश हैं, जो विकसित भारत के रास्ते में आए।"

    उन्होंने कहा कि अगर ऐसे विवरण दिए गए होते तो क़ानूनी बिरादरी उन आदेशों की निष्पक्ष जांच कर सकती थी।

    उन्होंने आगे कहा,

    "शायद, किसी मामले में हम कहते कि हाँ, एक विशेष आदेश विकासशील भारत के प्रयासों में बाधा बन रहा है।"

    जस्टिस ओक ने कहा कि न्यायिक आदेशों की आलोचना का स्वागत है "बशर्ते कोई यह स्थापित करे कि ये आदेश संविधान का उल्लंघन करते हैं। संविधान के दायरे में विकास कार्य की अनुमति नहीं देते।"

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    जस्टिस ओक ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन बनाने पर होने वाली बहस अक्सर विकास के अर्थ को ही नज़रअंदाज़ कर देती है।

    उन्होंने कहा,

    "एक प्रचलित दृष्टिकोण है कि पर्यावरणीय चिंताओं को विकास की आवश्यकता के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। बहुत से लोग मानते हैं कि विकास को पर्यावरणीय मुद्दों पर प्राथमिकता मिलनी चाहिए। शायद यह सब इसलिए होता है, क्योंकि हमने संविधान के ढांचे के संदर्भ में वास्तविक विकास के अर्थ को नज़रअंदाज़ कर दिया।"

    उन्होंने बताया कि संविधान अपने नीति निर्देशक सिद्धांतों और मौलिक कर्तव्यों के अनुरूप विकास की परिकल्पना करता है।

    42वें संशोधन के माध्यम से शामिल किए गए अनुच्छेद 48ए और अनुच्छेद 51ए के खंड (जी) का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा,

    "हमें संवैधानिक ढांचे के संदर्भ में विकास की अवधारणा पर काम करने की ज़रूरत है। जब हम कहते हैं कि विकास कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए तो हमें अपने विवेक का प्रयोग करके विकास को परिभाषित करना होगा।"

    जस्टिस ओक ने कहा कि वास्तविक विकास आम आदमी के लिए किफायती आवास, परिवहन, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने में निहित है।

    उन्होंने कहा,

    "मेरा मानना ​​है कि असली विकास तब होता है, जब हम गरीब लोगों के लिए किफायती आवासीय सुविधाएं और आम आदमी के लिए किफायती परिवहन सुविधाएं तथा शिक्षा और स्वास्थ्य की किफायती सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं। अगर यह संभव हो जाए तो हम कह सकते हैं कि विकास हुआ है। आज आप किसी भी शहर में जाएं, क्या कोई आम आदमी आवासीय सुविधा लेने का साहस कर सकता है? संविधान में विकास की उचित परिभाषा मिलने के बाद ही हम विकास और पर्यावरणीय चिंताओं के बीच संतुलन बनाने के बारे में सोच सकते हैं।"

    जस्टिस ओक ने प्रभावी पर्यावरणीय कानून प्रवर्तन और जन भागीदारी की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। "पर्यावरणीय न्याय और जलवायु न्याय के लिए हमें कानूनों का कड़ाई से पालन करना होगा और ऐसा करना अदालतों का कर्तव्य है। हालांकि, जन भागीदारी और समर्थन के बिना हम अपने प्रयास में सफल नहीं होंगे। जब तक हमारे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेता पर्यावरण के मुद्दे का समर्थन नहीं करेंगे, तब तक हम अपने प्रयास में सफल नहीं होंगे।

    जस्टिस ओक ने आगाह किया,

    "अन्यथा, जैसा कि अदालत के कुछ आदेशों के मामले में होता है, सब कुछ कागज़ों पर ही रह जाएगा।"

    मुंबई से दिल्ली पहुंचने पर अपने विचार साझा करते हुए जस्टिस ओक ने कहा,

    "मैं ऊपर से दिल्ली पर प्रदूषण के बादल देख सकता था। और मैं आपको बता दूं कि इस तरह के प्रदूषण पर सिर्फ़ दिल्ली का ही एकाधिकार नहीं है। बॉम्बे भी पीछे नहीं है। हालांकि, वहां हमें समुद्री हवा का फ़ायदा मिलता है, जो शहर की रक्षा करती है। ऐसे और भी शहर हैं, जो प्रदूषण के मामले में दिल्ली से मुकाबला कर सकते हैं।”

    अपने व्याख्यान का समापन करते हुए जस्टिस ओक ने अल्बर्ट आइंस्टीन के शब्दों का हवाला दिया:

    "दुनिया उन लोगों से नहीं तबाह होगी जो बुराई करते हैं, बल्कि उन लोगों से तबाह होगी जो बिना कुछ किए उन्हें देखते रहते हैं।"

    उन्होंने कहा कि यह कथन वर्तमान पर्यावरणीय संकट पर बिल्कुल सटीक बैठता है और न केवल आम जनता के लिए बल्कि क़ानूनी बिरादरी के लिए भी एक संदेश देता है।

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