छावनी बोर्ड से संपत्ति को 'डी-सील' करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं अगर भवन योजना को मंज़ूरी नहीं है : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

27 July 2023 12:58 PM IST

  • छावनी बोर्ड से संपत्ति को डी-सील करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं अगर भवन योजना को मंज़ूरी नहीं है : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अनधिकृत निर्माण का आरोप लगाते हुए छावनी बोर्ड द्वारा सील की गई संपत्ति को 'डी-सील' करने का अनुरोध नहीं किया जा सकता है, जबकि उस संपत्ति की भवन योजना को अभी तक छावनी बोर्ड द्वारा मंज़ूरी नहीं दी गई है।

    दिल्ली छावनी बोर्ड (डीसीबी) ने छावनी क्षेत्र में स्थित अपनी संपत्ति में अनधिकृत संरचनाओं को ध्वस्त करने के लिए याचिकाकर्ता को नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ता के अनुरोध पर कोर्ट ने छावनी बोर्ड को उसके भवन योजना पर विचार करने का निर्देश दिया। जबकि भवन योजना की अभी तक कोई मंज़ूरी नहीं दी गई थी, याचिकाकर्ता ने विषयगत संपत्ति को डी-सील करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    खंडपीठ में शामिल जस्टिस सी टी रविकुमार और जस्टिस संजय कुमार ने कानूनी प्रतिनिधियों और अन्य के माध्यम से राम किशन (मृतक) बनाम मनीष कुमार एवं अन्य के मामले में दायर अपील पर फैसला सुनाते हुए कहा है कि, “हमने पहले ही नोट कर लिया है कि रिट याचिकाकर्ता के पास स्वयं कोई मामला नहीं है कि उसके द्वारा प्रस्तुत भवन योजना स्वीकृत थी। जब इसे मंज़ूरी नहीं दी गई थी और अनुबंध पी-3 आदेश दिनांक 25.09.2020 के तहत डीसीबी को निर्देश केवल प्रचलित भवन नियमों और उपनियमों के अनुसार भवन योजना की मंज़ूरी के लिए आवेदन पर विचार करने के लिए था, तो रिट याचिकाकर्ता को अब, यह तर्क देने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि डीसीबी को रिट याचिकाकर्ता की संपत्ति को डी-सील करने का दायित्व मिला है।''

    पृष्ठभूमि तथ्य

    राम किशन ("अपीलकर्ता") के पास दिल्ली छावनी क्षेत्र ("वाद संपत्ति") में स्थित एक आवासीय संपत्ति थी। दिल्ली छावनी बोर्ड ("डीसीबी") ने अपीलकर्ता को एक तोड़फोड़ नोटिस जारी किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि उसने मंज़ूरी के लिए भवन योजना प्रस्तुत किए बिना अनधिकृत निर्माण किया था। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि वाद संपत्ति डीसीबी के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती है।

    अपीलकर्ता के पड़ोसी, अर्थात् मनीष कुमार ("प्रतिवादी") ने 2018 में एक सिविल वाद दायर किया और अपीलकर्ता के खिलाफ निषेधाज्ञा और वाद संपत्ति को सील करने की मांग की।

    अपीलकर्ता के निधन के बाद, उनके बेटे परवीन कुमार ने उनके कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में वाद को आगे बढ़ाया। 2020 में, परवीन ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक विशेष अनुमति याचिका और एक रिट याचिका दायर की, जिसे एक साथ जोड़ दिया गया। परवीन ने उक्त कार्यवाही में एक अंतरिम आवेदन भी दायर किया था, जिसमें एक प्रार्थना यह थी कि 'डीसीबी द्वारा इसके लिए भवन योजना को मंज़ूरी देने के बाद वाद संपत्ति को डी-सील करने का निर्देश दिया जाए।'

    जब ट परवीन ने बिना शर्त स्वीकार कर लिया कि वाद संपत्ति पर दिल्ली छावनी बोर्ड का अधिकार क्षेत्र है, तो सुप्रीम कोर्ट ने 25.09.2020 को उन्हें डीसीबी को एक भवन योजना प्रस्तुत करने की अनुमति दी और डीसीबी को उस पर विचार करने और एक आदेश पारित करने का निर्देश दिया गया।

    इसके बाद, परवीन ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 ("सीपीसी") की धारा 151 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें उक्त सिविल वाद को खारिज करने की मांग की गई और आवेदन दिनांक 13.04.2021 के आदेश के तहत खारिज कर दिया गया। इसके बाद परवीन ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत 13.04.2021 के आदेश पर आपत्ति जताते हुए एक याचिका दायर की। 11.11.2021 को हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट के आदेश की पुष्टि की।

    मनीष कुमार (प्रतिवादी) ने सिविल वाद में सीपीसी के आदेश XIV नियम 5 के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा तय किए गए अंक संख्या 1 और 2 को हटाने का अनुरोध किया गया, जिसके तहत यह तय किया जाना था कि वाद संपत्ति डीसीबी के अधिकार क्षेत्र में आती है या नहीं। चूंकि परवीन ने डीसीबी के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार कर लिया था, इसलिए ट्रायल कोर्ट ने 10.04.2023 को अंक संख्या 1 और 2 को हटा दिया। परवीन ने 10.04.2023 के आदेश को हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी और बाद में ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा।

    परवीन (कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में) ने दिनांक 11.11.2021 और 10.04.2023 के आदेशों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील दायर की। भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका भी दायर की गई थी जिसमें वाद संपत्ति को सील करने के लिए दिल्ली छावनी बोर्ड को परमादेश जारी करने की मांग की गई थी। मामलों की सुनवाई एक साथ की गई।

    सुप्रीम कोर्ट का फैसला

    खंडपीठ ने छावनी अधिनियम, 2006 की धारा 250 का अवलोकन किया, जिसमें प्रावधान है कि छावनी अधिनियम के तहत नोटिस/आदेश से उत्पन्न होने वाली किसी भी कार्यवाही पर न्यायालयों द्वारा विचार नहीं किया जा सकता है। यह राय दी गई कि चूंकि मनीष के खिलाफ धारा 250 के आवेदन को आकर्षित करने के लिए कोई नोटिस या आदेश जारी नहीं किया गया था। इस प्रकार, सिविल वाद धारा 250 द्वारा वर्जित नहीं है।

    “उपरोक्त प्रावधान के अनुसार रोक किसी भी आदेश या नोटिस के संबंध में तब तक लागू होगी जब तक कि उक्त अधिनियम की धारा 340 के तहत अपील नहीं की जाती है और अधिनियम की धारा 343 की उप-धारा 3 के तहत अपीलीय प्राधिकारी द्वारा इसका निपटारा नहीं किया जाता है। ट्रायल कोर्ट का तथ्यात्मक निष्कर्ष यह है कि पहले प्रतिवादी/वादी के खिलाफ कोई नोटिस या आदेश जारी नहीं किया गया था ताकि अधिनियम की धारा 250 के तहत प्रतिबंध लगाया जा सके। धारा 250 के तहत प्रावधानों पर आधारित इस तथ्यात्मक निष्कर्ष की पुष्टि हाईकोर्ट द्वारा दिनांक 10.04.2023 के फैसले के अनुसार की गई है।

    तदनुसार, सिविल अपीलें खारिज कर दी गई हैं और दोनों मुद्दों को हटाने को बरकरार रखा गया है।

    जब भवन योजना स्वीकृत नहीं हुई हो तो संपत्ति को डी-सील करने की मांग करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है

    रिट याचिका के संबंध में, बेंच ने पाया कि हाईकोर्ट के समक्ष रिट कार्यवाही में, परवीन ने एक अंतरिम आवेदन दायर किया था जिसमें डीसीबी को "याचिकाकर्ता की भवन योजना की मंज़ूरी पर याचिकाकर्ता की संपत्ति को डी-सील करने" का निर्देश देने की मांग की गई थी। इसके अलावा, परवीन ने भी बिना शर्त स्वीकार किया था कि यह डीसीबी के अधिकार क्षेत्र में आता है।

    यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं था कि डीसीबी ने परवीन द्वारा प्रस्तुत भवन योजना को मंज़ूरी दे दी है, इसलिए, डीसीबी संपत्ति को डी-सील करने के लिए बाध्य नहीं है।

    बेंच ने कहा,

    “हमने पहले ही नोट कर लिया है कि रिट याचिकाकर्ता के पास स्वयं कोई मामला नहीं है कि उसके द्वारा प्रस्तुत भवन योजना स्वीकृत थी। जब इसे मंज़ूरी नहीं दी गई थी और अनुबंध पी-3 आदेश दिनांक 25.09.2020 के तहत डीसीबी को निर्देश केवल प्रचलित भवन नियमों और उपनियमों के अनुसार भवन योजना की मंज़ूरी के लिए आवेदन पर विचार करने के लिए था, तो रिट याचिकाकर्ता को अब, यह तर्क देने के लिए अनुमति नहीं दी जा सकती कि डीसीबी को रिट याचिकाकर्ता की संपत्ति को डी-सील करने का दायित्व मिला है।"

    बेंच ने पाया कि बिल्डिंग प्लान की मंज़ूरी के लिए परवीन के आवेदन पर विचार करने के लिए डीसीबी को केवल एक निर्देश के साथ हाईकोर्ट के समक्ष रिट याचिका का निपटारा कर दिया गया था। चूंकि परवीन के पास डी-सीलिंग कराने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, इसलिए डीसीबी को परमादेश की रिट जारी नहीं की जा सकती।

    “इस तथ्य के संबंध में कोई संदेह नहीं हो सकता है कि डी-सीलिंग का प्रश्न भी एक ऐसा मामला है जो संबंधित परिस्थितियों को देखते हुए लंबित सिविल वाद में विचार के लिए उत्पन्न होने वाले मुद्दों से जुड़ा हुआ है। किसी भी दर पर, अनुबंध पी-3 आदेश दिनांक 25.09.2020 के आलोक में, रिट याचिकाकर्ता कानूनी तौर पर इस स्तर पर ऐसी प्रार्थना मांगने का हकदार नहीं है। उक्त परिस्थितियों में, रिट याचिका विफल हो जाएगी क्योंकि उसमें मांगी गई प्रार्थना इस स्तर पर स्वीकार्य नहीं है।''

    रिट याचिका खारिज कर दी गई

    केस : राम किशन (मृतक) कानूनी प्रतिनिधियों और अन्य के माध्यम से बनाम मनीष कुमार एवं अन्य।

    साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (SC) 568; 2023 INSC 640

    अपीलकर्ताओं के लिए वकील: अभिषेक शर्मा

    प्रतिवादियों के लिए वकील: अवनीश अहलावत

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