'पड़ोस का झगड़ा आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं': सुप्रीम कोर्ट ने महिला को बरी किया

Shahadat

10 Sept 2025 9:28 PM IST

  • पड़ोस का झगड़ा आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने महिला को बरी किया

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने पड़ोसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में महिला को बरी कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पड़ोस में झगड़े सामुदायिक जीवन में आम हैं और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में उकसावे की भावना इतनी बढ़ जानी चाहिए कि पीड़ित के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प न बचे।

    जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने कहा,

    "हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि जब अपीलकर्ता के परिवार और पीड़ित के परिवार के बीच तीखी बहस हुई तो दोनों में से किसी भी परिवार के किसी सदस्य को आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई इरादा था। ये झगड़े रोज़मर्रा की ज़िंदगी में होते हैं। तथ्यों के आधार पर हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहे हैं कि अपीलकर्ता की ओर से इस हद तक उकसावा दिया गया कि पीड़ित के पास आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।"

    अदालत कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार कर रही थी, जिसमें अपीलकर्ता की भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 306 के तहत दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया। हालांकि, SC/ST Act की धारा 3(2)(v) के तहत दंडनीय अपराध के लिए उसे बरी कर दिया गया, क्योंकि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री अपर्याप्त थी। इस फैसले के तहत अपीलकर्ता को 3 साल की कैद और 5000 रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई गई।

    अभियोजन पक्ष के अनुसार, अपीलकर्ता और पीड़िता-पड़ोसी के बीच लगातार झगड़ा होता रहता था। पीड़िता एक निजी शिक्षिका थी, जो घर पर ट्यूशन पढ़ाती थी। अपने घर से आने वाले शोर और बच्चों को डांटने से परेशान होकर अपीलकर्ता ने पीड़िता से झगड़ा किया, उसे जातिवादी गालियां दीं, 25 साल की उम्र में अविवाहित होने का ताना मारा। उसके और उसके परिवार के सदस्यों के साथ मारपीट की। उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन, पीड़िता ने खुद पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। जब उसकी हालत स्थिर थी, तब उसने अस्पताल में बयान दिया और अपीलकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को दोषी ठहराया। बाद में उसकी चोटों के कारण मृत्यु हो गई।

    निचली अदालत ने अपीलकर्ता के परिवार के सदस्यों को बरी कर दिया। हालांकि, उसे IPC की धारा 306 और SC/ST Act की धारा 3(2)(v) के तहत दोषी ठहराया। धारा 306 के तहत अपराध के लिए 5 वर्ष के कारावास और SC/ST Act की धारा 3(2)(v) के तहत दंडनीय अपराध के लिए आजीवन कारावास और 5,000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई।

    रिकॉर्ड में उपलब्ध सामग्री और इस विषय पर न्यायिक उदाहरणों पर विचार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने धारा 306 के तहत अपीलकर्ता की दोषसिद्धि रद्द की। अभियोजन पक्ष के मामले को गंभीरता से लेते हुए न्यायालय ने माना कि दोनों पक्षकारों के बीच तीखी बहस हुई। अपीलकर्ता पक्ष द्वारा कथित तौर पर मारपीट भी की गई। हालांकि, बाद वाले आरोप के संबंध में अपीलकर्ता को बरी कर दिया गया और राज्य ने कोई अपील दायर नहीं की।

    हाईकोर्ट के फैसले में यह उल्लेख किया गया कि पीड़िता संवेदनशील व्यक्ति थी और अपीलकर्ता के खिलाफ लड़ाई में उसे समर्थन का अभाव था। चूंकि अपीलकर्ता को अपने परिवार का समर्थन प्राप्त था, "पीड़िता को यह महसूस हुआ कि वह लड़ाई हार गई है, जिससे वह हताश होकर आत्महत्या जैसा चरम कदम उठाने के लिए प्रेरित हुई। अंततः अवसाद की चरम सीमा पर पहुंच गई, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।" यह भी देखा गया कि अपीलकर्ता द्वारा जातिवादी गालियां देने के आरोप का पीड़िता के अधिकांश पड़ोसियों ने समर्थन नहीं किया।

    मदन मोहन सिंह बनाम गुजरात राज्य और अमलेंदु पाल उर्फ ​​झंटू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामलों पर विचार करते हुए न्यायालय ने कहा कि धारा 306 के तहत अपराध को आकर्षित करने के लिए पीड़िता की मृत्यु के लिए विशिष्ट रूप से उकसाना आवश्यक है। उत्पीड़न इस प्रकार का होना चाहिए कि पीड़िता के पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प न बचे।

    अदालत ने कहा,

    "हालांकि, 'अपने पड़ोसी से प्रेम करो' आदर्श स्थिति है, लेकिन पड़ोस के झगड़े सामाजिक जीवन में कोई नई बात नहीं हैं। ये सामुदायिक जीवन जितने ही पुराने हैं। सवाल यह है कि क्या तथ्यों के आधार पर आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई मामला दर्ज हुआ है?"

    अंततः, अदालत ने अपील स्वीकार कर ली और हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया। अपीलकर्ता को धारा 306 के तहत आरोप से बरी कर दिया गया और उसकी ज़मानत रद्द कर दी गई।

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