सुप्रीम कोर्ट में तलाक और भरण-पोषण के मामले में यूनीफॉर्म लॉ के लिए दायर जनहित याचिका के खिलाफ मुस्लिम महिला ने आवेदन दायर किया

LiveLaw News Network

24 March 2021 1:49 PM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    तलाक और भरण-पोषण संबंध‌ित व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता के लिए भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की ओर से दायर एक जनहित याचिका के ‌खिलाफ एक मुस्लिम महिला ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

    गुड़गांव की निवासी अमीना शेरवानी का दावा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम शादियों, तलाक, भरण-पोषण आदि को विनियमित करने के प्रावधान फायदेमंद हैं।

    वह दावा करती है कि मुस्लिम विवाह की संविदात्मक प्रकृति मुस्लिम महिलाओं को विवाह पर ऐसी शर्तें लगाने में मदद करती है, जो वैवाहिक जीवन की अनिश्चितताओं के कारण उनके हितों की रक्षा करती हैं।

    अधिवक्ता फुजैल अहमद अय्युबी के माध्यम से दायर आवेदन को अधिवक्ता रश्मि सिंह ने तैयार किया है, जिसमें कहा गया है,

    "मुस्लिम विवाह प्रकृति में संविदात्मक है और इसमें शामिल पक्षों को वैवाहिक संबंधों को विनियमित करने के लिए शर्तों को लागू करने की अनुमति दी जाती है। ऐसी शर्तें शादी से पहले या शादी के समय या शादी के बाद भी लागू की जा सकती हैं। समझौता कानूनी और मुस्लिम कानून के प्रावधानों के अनुसार हो। मुस्लिम कानून के तहत वैवाहिक शर्तों को लागू करने का विकल्प मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करता है और वैवाहिक जीवन की अनिश्चितताओं ओर विवाह के विघटन के दरमियान भी उनके हितों की रक्षा करता है।"

    आवेदन में मेहर (मुस्लिम विवाह के लिए प्रथागत विचार), तलाक के प्रकार, आदि जैसे प्रावधानों की चर्चा की गई है, जिन्हें समुदाय के लिए लाभकारी बताया गया है।

    मुस्लिम विवाह समझौतों के तहत अधिकार

    आवेदन में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत शादी के समझौतों के माध्यम से, मुस्लिम महिलाओं के पास मेहर का अधिकार है- यह शादी के ल‌िए एक "पर्याप्त" विचार है। वह कहती हैं कि मेहर इस्लामिक सिद्धांतों के तहत कम नहीं हो सकती।

    शादी के समझौता के तहत मुस्लिम महिलाओं को अनुमति देता है-

    -कुछ आकस्मिकताओं के होने पर पति को तलाक दें (सब्रा जान बनाम अब्दुल रऊफ, AIR 1921 लाह 194)

    -दुर्व्यवहार या असहमति की स्थिति में पति के घर को छोड़ दें (बन्ने साहेब बनाम अबीदा बेगम, AIR 1922 अवध 251)

    -कुछ परिस्थितियों में दावा तय या अलग भरण-पोषण (मोहम्मद मुइनुद्दीन बनाम जमाल फातिमा, AIR 1921 All. 152)।

    -पत्नी के पूर्व पति के बच्चों के लिए भरण-पोषण प्रदान करने के लिए पति पर शर्त लगाना या भरण-पोषण के माध्यम से कुछ विशेष भत्ता प्रदान करने के लिए शर्त लगाना (यूसुफ अली बनाम फाइजूनिसा, 15 WR 296)

    वैवाहिक विवादों की मध्यस्थता और शीघ्र ‌निस्तारण के प्रावधान:

    आवेदन यह मानता है कि मध्यस्थता के माध्यम से वैवाहिक विवादों का समाधान इस्लामी वैवाहिक न्यायशास्त्र के तहत प्रदान किया जाता है। यह प्रस्तुत किया गया है कि इस प्रकार के विवाद निस्तारण से पार्टियों को "लंबी प्रतिकूल मुकदमेबाजी" से बचाया जाता है, जिससे विशेष रूप से महिलाओं को भारी कठिनाई और अपमान का सामना करना पड़ता है।

    मुस्लिम महिलाओं के लिए तलाक पाने के उपलब्ध तरीके

    आवेदन में कहा गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, एक मुस्लिम महिला पति को निम्नलिखित 5 तरीकों से तलाक दे सकती है:

    -तलाक ए तफ़वीज़ (पति को तलाक देने का पत्नी का अधिकार पति के अधिकार के समान है, यदि उसे निकाहनामा में शामिल किया गया है या जहां पति द्वारा बाद की तारीख में ऐसा प्रत्यायोजन किया गया है)

    -ख़ुला (पत्नी शरीयत कोर्ट के माध्यम से अपनी शादी को समाप्त करा सकती है)

    -तलाक-ए-मुबर्राह (आपसी सहमति से तलाक)

    -फस्क- (पत्नी शरीयत कोर्ट के जरिए निकाह कर सकती है)

    -कोर्ट द्वारा विवाह विघटन (पत्नी मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 के तहत नियमित अदालतों का दरवाज़ा खटखटा सकती है)

    इस पृष्ठभूमि में, शेरवानी ने जनहित याचिका के विरोध का आग्रह किया। उसने याचिकाकर्ता की लोकस स्टैंडाई पर सवाल उठाया, और कहा कि मौजूदा याचिका उनकी जैसी महिलाओं की एजेंसी को हटाने का एक कुत्सित प्रयास है।

    याचिका में आगे कहा गया है कि याचिका संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत संरक्ष‌ित सांस्कृतिक और प्रथागत प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का सोचा-समझा प्रयास है।

    पृष्ठभूमि

    भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने पिछले साल व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता के लिए उक्त रिट याचिका दायर की थी।

    उन्होंने दलील दी थी कि हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक लेते हैं, जबकि मुस्लिम, ईसाई और पारसी धर्म के निजी कानून हैं। विभिन्न धर्मों से संबंधित दंपत‌ि को विशेष विवाह अधिनियम, 1956 के तहत तलाक लेते हैं। यदि दोनों में से कोई एक विदेशी नागरिक है तो विदेशी विवाह अधिनियम 1969 लागू होता है। इसलिए, तलाक के आधार न तो लिंग-तटस्थ हैं और न ही धर्म-तटस्थ हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 44 के तहत भेदभावपूर्ण हैं।

    16 दिसंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर नोटिस जारी करने पर सहमति व्यक्त की, हालांकि, CJI ने कहा कि "हम बड़ी सावधानी के साथ नोटिस जारी कर रहे हैं।"

    सुनवाई के दरमियान, CJI ने पर्सनल लॉ में दखल देने पर असंतोष व्यक्त किया। उन्होंने कहा, "आप हमसे व्यक्तिगत कानूनों का अतिक्रमण करने और उनके द्वारा बनाए गए भेद को दूर करने के लिए कह रहे हैं।"

    आवेदन डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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