मर्डर ट्रायलः सुप्रीम कोर्ट ने माना, जब सबूत में इच्छुक गवाह शामिल हों तब अभियुक्त के शरीर पर लगी चोटों की व्याख्या में अभियोजन पक्ष की ओर से हुई चूक अधिक महत्वपूर्ण

Avanish Pathak

15 March 2023 12:25 PM GMT

  • मर्डर ट्रायलः सुप्रीम कोर्ट ने माना, जब सबूत में इच्छुक गवाह शामिल हों तब अभियुक्त के शरीर पर लगी चोटों की व्याख्या में अभियोजन पक्ष की ओर से हुई चूक अधिक महत्वपूर्ण

    सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में दोहराया कि अभियुक्त के शरीर पर चोटों की व्याख्या करने में अभियोजन पक्ष की ओर से हुई चूक अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, जहां सबूत में इच्छुक गवाह शामिल होता है या जहां बचाव पक्ष एक बयान देता है, जो अभियोग पक्ष की ओर से दिए गए बयान की संभाव्यता के साथ प्रतिस्पर्धा करता है।

    जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की खंडपीठ ने ट्रायल कोर्ट की ओर से दिए गए और छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की ओर से मुख्य रूप से इस आधार पर पुष्ट किए गए दोषसिद्धि के फैसले को पलट दिया और कि अभियोजन पक्ष ने अभियुक्त के शरीर पर लगी चोटों की व्याख्या नहीं की थी; एफआईआर दर्ज करने में विलंब हुआ था; और साक्ष्य में इच्छुक गवाह शामिल थे, विशेष रूप से यह पार्टियों के बीच पहले से मौजूद प्रतिद्वंद्विता का मामला था।

    अभियोजन पक्ष

    2006 में आरोपियों में से एक नरेश कुमार ने आत्माराम नामक व्यक्ति के साथ मारपीट की थी। आत्माराम ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई। नतीजतन, नरेश ने अन्य अभियुक्तों के साथ, जिन्होंने हथ‌ियार लिए हुए थे, एक गैरकानूनी भीड़ का गठन किया और मृतक (आत्माराम के पिता) के घर में घुस गए; उन पर और उनके परिवार के सदस्यों पर हमला कर दिया। मारपीट के बाद परिजन डॉक्टर को दिखाने गए। लेकिन थाने में रिपोर्ट दर्ज नहीं होने पर चिकित्सक ने इलाज करने से मना कर दिया। उसी को देखते हुए उन्होंने अपराध की सूचना दी। आखिरकार, 12 अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई।

    ट्रायल कोर्ट ने सभी अभियुक्तों को दोषी करार दिया। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की खंडपीठ ने आरोपी व्यक्तियों की ओर से दायर अपील को खारिज कर दिया।

    हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की गईं। मामला लंबित होने के दरमियान एक अभियुक्त की मृत्यु हो गई; और कुछ अभियुक्तों को उनकी सजा पूरी होने पर पहले ही रिहा कर दिया गया था। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट समक्ष चार अभियुक्तों अपील बची रह गई।

    निष्कर्ष

    कोर्ट ने कहा कि हत्या की घटना दर्ज कराने गया आत्माराम घटना का चश्मदीद गवाह नहीं था। उसके बेटे ने उसे बताया कि उसके पिता की हत्या कर दी गई है। आरोपी नरेश ने धारा 313 सीआरपीसी के तहत दर्ज अपने बयान में कहा कि आत्माराम के हमले में उसे गंभीर चोटें आई हैं। वह थाने गया, जहां से उसे अस्पताल भेज दिया गया।

    कोर्ट ने नरेश की मेडिकल जांच का हवाला दिया। जांच अधिकारी ने अपनी जिरह में यह भी स्वीकार किया कि नरेश के सिर, उंगली और पैर में गंभीर चोटें आई थीं और उसे पुलिस स्टेशन से अस्पताल ले जाया गया था। यह देखा गया कि अभियोजन पक्ष ने नरेश की चोटों के संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया था।

    अदालत ने कहा कि नरेश को लगी चोटों की प्रकृति को देखते हुए, उसके लिए घटना के दूसरे भाग में शामिल होना मुश्किल था, जहां आत्मा राम के पिता की हत्या कर दी गई और परिवार के सदस्यों पर हमला किया गया।

    लक्ष्मी सिंह व अन्य बनाम बिहार राज्य का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि चोटों का स्पष्टीकरण ना करना यह इंगित करता है कि अभियोजन पक्ष ने घटना की उत्पत्ति को दबा दिया था; अभियुक्तों पर चोटों की मौजूदगी से इनकार करने वाले लोगे झूठ बोल रहे हैं और उनका साक्ष्य अविश्वसनीय है;

    चोटों की व्याख्या करने वाला बचाव पक्ष का बयान अभियोजन पक्ष के मामले पर संदेह पैदा कर सकता है।

    इसके अलावा, अभियुक्तों की चोटों की व्याख्या करने में अभियोजन पक्ष की ओर से हुई चूक अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगी, जहां साक्ष्य में इच्छुक या पक्षद्रोही गवाह शामिल हैं या जहां बचाव पक्ष का ऐसा बयान देता है जो अभियोजन पक्ष के साथ संभाव्यता में प्रतिस्पर्धा करता है।

    यह भी संज्ञान लिया गया कि सरपंच के चुनाव को लेकर मामले में शामिल दोनों परिवारों के बीच पहले से रंजिश थी। यह कहा गया था कि पिछली दुश्मनी दोधारी तलवार की तरह काम कर सकती है। इसका उपयोग मकसद स्थापित करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन यह झूठे निहितार्थ की संभावना भी है।

    इसके अलावा, अदालत ने कहा कि एफआईआर दर्ज करने में लगभग चार से पांच घंटे की देरी हुई और इसका कारण अभियोजन पक्ष द्वारा स्पष्ट नहीं किया गया है। कोर्ट ने नरेश को संदेह का लाभ देना उचित समझा।

    कोर्ट ने पाया कि इंटिमेशन रिपोर्ट या स्पॉट पंचनामा में आरोपी नंबर 8 से 10 का कोई जिक्र नहीं था। कोर्ट ने कहा कि मामले में शामिल स्थानों की दूरी को देखते हुए एफआईआर दर्ज करने में देरी ने अभियोजन पक्ष के मामले की वास्तविकता पर गंभीर संदेह पैदा किया है।

    रमेश बाबूराव देवस्कर और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा कि जब पार्टियों के बीच पहले से ही दुश्मनी हो, तो एफआईआर का तत्काल दर्ज होना अभियोजन पक्ष के मामले को विश्वसनीयता प्रदान करता है।

    इच्छुक गवाहों के साक्ष्य के मुद्दे के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि जब साक्ष्य आंशिक रूप से विश्वसनीय है और आंशिक रूप से नहीं, तो न्यायालय को ‌विश्वसनीय साक्ष्यों को छांटना पड़ता है और प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और विश्वसनीय गवाही से आगे की पुष्टि करनी होती है। कोर्ट ने आरोपी नंबर 8 से 10 को भी संदेह का लाभ दिया ।

    कोर्ट ने कहा,

    "एफआईआर दर्ज करने में देरी को ध्यान में रखते हुए और उन परिस्थिति के मद्देनज़र, जिनके कारण उनके नामों का समकालीन दस्तावेजों में उल्लेख नहीं किया गया है, उक्त अभियुक्तों को गलत तरीके से फंसाए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।"

    केस टाइटलः नंद लाल व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य| (2023) लाइवलॉ एससी 186 | क्रिमिनल अपील नंबर 1421 ऑफ 2015| 14 मार्च, 2023| जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल


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