मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है: सुप्रीम कोर्ट
LiveLaw News Network
9 March 2021 9:32 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों की भूमिका पर जोर देते हुए आपराधिक अदालत प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के बारे में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है।
पीठ ने कहा कि यह एक ऐसा मामला है, जिसे इस अदालत तक पहुंचने की अनुमति नहीं देनी चाहिए और मजिस्ट्रेट के उस आदेश को रद्द किया, जिसमें मजिस्ट्रेट ने गैर-संज्ञेय रिपोर्ट दर्ज होने के छह साल बाद उसी घटना के संबंध में उसी आरोपी के खिलाफ दर्ज की गई शिकायत की प्रक्रिया शुरू की गई थी।
कोर्ट ने कहा कि, निजी शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट को सबसे पहले जांच करनी चाहिए कि क्या निजी शिकायत में लगाए गए आरोप, अन्य बातों के साथ, तुच्छ मुकदमेबाजी का उदाहरण तो नहीं ; और उसके बाद, शिकायतकर्ता के मामले का समर्थन करने वाले सबूतों की जांच करना और उसे इकट्ठा करना चाहिए। भारतीय संविधान और सीआरपीसी के तहत ट्रायल जज का कर्तव्य है, प्रारंभिक अवस्था में तुच्छ मुकदमेबाजी की पहचान करना और उसका निपटारा करना, पर्याप्त रूप से ट्रायल कोर्ट इसके लिए शक्तियां और अधिकार प्राप्त हैं।
पीठ ने कहा कि,
"इस तरह के मामलों में अन्याय को रोकने में ट्रायल कोर्ट और मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका है। वे आपराधिक न्याय प्रणाली की अखंडता, और पीड़ित और व्याकुल वादियों की रक्षा की पहली पंक्ति हैं। हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि ट्रायल कोर्ट के पास ट्रायल के बाद आरोपी व्यक्ति को न केवल बरी या दोषी ठहराने का फैसला करने की शक्ति है। इसके साथ ही फिट मामलों में आरोपी को डिस्चार्ज करने की शक्ति है और ट्रायल के चरण तक पहुंचने से पहले ही तुच्छ मुकदमों को खत्म करने का भी कर्तव्य है। यह न केवल लोगों के धन की बचत होगी और इसके साथ ही न्यायिक समय को बचाएगा, बल्कि स्वतंत्रता के अधिकार की भी रक्षा करेगा जो कि प्रत्येक व्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हकदार हैं। इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है।"
न्यायसंगत मुकदमेबाजी को और अधिक प्रभावी बनाना न्याय प्रणाली की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
बेंच ने यह भी कहा कि भारत में न्याय वितरण प्रणाली बैकलॉग से ग्रस्त है, अधीनस्थ अदालतों के आपराधिक पक्ष में होने से पहले 70% मामले पेंडिंग हैं।
पीठ ने कहा कि,
"इस बैकलॉग का एक महत्वपूर्ण कारक मुकदमेबाज़ों द्वारा न्याय के लिए न्यायालयों का दुरूपयोग करने के इरादे से उनके स्वंय द्वारा किए जाने वाले शरारत पूर्ण कृत्य से साल-दर-साल स्थापित किए गए तुच्छ मुकदमों का विशाल भंडार है। इस तरह के तुच्छ मुकदमेबाजी को खत्म करना देना, न्याय प्रणाली अधिक प्रभावी बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। एक ऐसा कदम, विशेष रूप से आपराधिक कार्यवाही में निचली न्यायपालिका की सक्रिय भागीदारी के बिना नहीं लिया जा सकता है।"
मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करने की भी जिम्मेदारी निभाता है कि यह कार्यवाही उन मामलों में आगे नहीं बढ़ाना चाहिए, जहां इस तरह की कार्यवाही की जरूरत नहीं है।
अदालत ने कहा कि आपराधिक न्याय प्रणाली निर्धारित होने के बाद, यह पूरी तरह से मजिस्ट्रेट की न्यायिक समझ पर निर्भर है। इसमें कहा गया है कि समन जारी करने की शक्ति विशेष महत्व रखता है, और मजिस्ट्रेट को केवल स्वयं को संतुष्ट करने के बाद आपराधिक कानून की अनुमति देनी चाहिए कि कोई वास्तविक मामला बनाया जाना है।
कोर्ट ने कहा कि,
"जब दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 154 के तहत एक संज्ञेय अपराध की शिकायत पुलिस के पास दर्ज की जाती है, तो मजिस्ट्रेट यह फैसला करता है कि क्या ट्रायल शुरू होने से पहले आरोपी के खिलाफ आरोप लगाया गया है। अगर सीआरपीसी की धारा 200 के तहत शिकायत दर्ज की जाती है तो एक अलग प्रक्रिया निर्धारित की जाती है। पूर्वोक्त प्रावधान यह स्पष्ट करते हैं कि मजिस्ट्रेट सूचना देने वाला / शिकायतकर्ता के शिकायत के बाद ही आपराधिक कार्यवाही की को आगे बढ़ाता है। नतीजतन और स्वंय से, मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी वहन करता है कि यह उन मामलों में आगे न बढ़े जहां यह नहीं होना चाहिए। मजिस्ट्रेट को प्राप्त पूर्वोक्त शक्तियां नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव डालती हैं। इस प्रकार, ये शक्तियां मजिस्ट्रेट के कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी डालती हैं और उन्हें बड़ी सावधानी के साथ और उचित न्यायिक समझ के साथ प्रयोग करना चाहिए।"
वर्तमान मामले में, अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट को निजी शिकायत दर्ज करने में हुई देरी के बारे में जानकारी थी और पहले एनसीआर नंबर 158/2012 से सबूतों में किए गए सुधार के बारे में पता था, जिसकी जानकारी निजी शिकायत में दी गई थी । यह अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग की किसी भी संभावना की जांच करने, आगे की पूछताछ करने और अपने न्यायिक समझ से तुच्छ शिकायत को खारिज करने के लिए मजिस्ट्रेट पर निर्भर था।
केस: कृष्ण लाल चावला बनाम यूपी राज्य [CrA 283 of 2021]
कॉरम: जस्टिस मोहन एम. शांतानागौदर और जस्टिस आर. सुभाष रेड्डी
Citation: LL 2021 SC 145