"कानून घृणित, विभाजनकारी और साम्प्रदायिक दुष्प्रचार के लिए प्रभावशाली शक्ति के रूप में कार्य करता है" : मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अध्यादेश 2020 को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
LiveLaw News Network
16 Feb 2021 3:55 PM IST
"यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 'लव जिहाद' की राजनीतिक और सांप्रदायिक नौटंकी, जो पहले केवल फर्जी दुष्प्रचार मशीनों (जैसे- 'व्हाट्सएप विश्वविद्यालय', 'संदेहास्पद सोशल मीडिया' आउटलेट्स) आदि के द्वारा 'हमें बनाम उनका' की भावनाओं, राजनीतिक रैलियों और सामाजिक गौण गतिविधियों तक सीमित थी, अब इसने खुद को एक कानून के रूप में प्रकट कर दिया है।"
मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अध्यादेश 2020 को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी है। याचिका में राज्य सरकार के अध्यादेश को संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 का उल्लंघन करार दिया गया है।
यह याचिका अधिवक्ता राजेश इनामदार, शाश्वत आनंद, देवेश सक्सेना, आशुतोष मणि त्रिपाठी एवं अंकुर आजाद द्वारा तैयार की गयी है और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (एओआर) अल्दानीश रेन द्वारा दायर की गयी है।
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश - 2020 और उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 को चुनौती देने वाली याचिकाएं पहले से ही लंबित हैं।
उसके बाद अब मध्य प्रदेश के संबंधित अध्यादेश के खिलाफ याचिका दायर की गयी है जिसमें कहा गया है,
"विवादित अध्यादेश विवाह की आजादी, अपनी इच्छा के धर्म को अपनाने, उस पर अमल करने और उसके प्रचार प्रसार की आजादी का हनन करता है और इसने आम आदमी की निजी स्वायत्तता, कानून की नजर में समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और चयन एवं अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात किया है, साथ ही यह भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का खुल्लम खुल्ला एवं स्पष्ट उल्लंघन है।"
विवादित अध्यादेश को पारित कराने की प्रक्रिया के बारे में याचिका में कहा गया है कि मध्य प्रदेश विधानसभा की संबंधित विधायी प्रक्रिया 'संविधान के साथ धोखा है।'
याचिका में कहा गया है,
"प्रतिवादियों द्वारा विवादित अध्यादेश को लागू करना संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत प्रदत्त शक्तियों के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन का उदाहरण है। विधानसभा की विधायी प्रक्रिया से इतर अध्यादेश लागू करने का प्रतिवादियों का कदम न केवल निरंकुश और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, बल्कि संविधान के साथ धोखा भी है।"
इतना ही नहीं, याचिका में अध्यादेश में जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाओं के बारे में सरकारी एजेंसियों अथवा विभागों के पास उपलब्ध उचित डाटा की गैर मौजूदगी को भी उल्लेखित किया गया है।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि इन बिंदुओं के आलोक में यह स्पष्ट है कि 'लव जिहाद' और 'साजिश का सिद्धांत' काल्पनिक है, जिसके लिए कोई डाटा उपलब्ध नहीं है।
इसके साथ ही, याचिका में अध्यादेश को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध करते हुए कहा गया है,
"जो कानून मौजूदा सामाजिक वर्गीकरण में शक्ति विषमताओं को संरक्षित करने का प्रयास करता है, वह राज्य-प्रायोजित स्थिति के समक्ष अपने क़ीमती मौलिक अधिकारों को निर्धारित करने के एक व्यक्ति के सुधारवादी संविधानवाद की अवधारणा को बलपूर्वक निष्फल करता है। इसके अलावा, यह कानून सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काते हुए घृणित, विभाजनकारी और साम्प्रदायिक दुष्प्रचार के लिए प्रभावशाली शक्ति के रूप में कार्य करता है, और इस न्यायालय को इसकी निंदा करनी चाहिए तथा इसे विस्मृति के रसातल में धकेल देना चाहिए।"