लव जिहाद कानून 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' पर हमला है: जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कानूनों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की
LiveLaw News Network
7 Jan 2021 11:18 AM IST
एक आवेदन के माध्यम से जमीयत-उलमा-ए-हिंद को भी उस याचिका के पक्षकार के रूप में जोड़ा गया, जिस याचिका के माध्यम से दो राज्यों के द्वारा लाए गए लव जिहाद कानून की संवैधानिकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। दरअसल, लव जिहाद पर रोक लगाने के लिए यूपी में 'उत्तर प्रदेश में गैर कानूनी तरीके से धर्मांतरण प्रतिषेध कानून' और उत्तराखंड में 'फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट, 2018' ( विशाल ठाकरे और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया) बनाया गया है।
जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने दलील देते हुए कहा है कि,
"विचाराधीन अध्यादेश प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत निर्णय को विनियमित करने का प्रयास करता है, जो कि अपने पसंद के धर्म में परिवर्तित होने के अधिकार पर आक्रमण कर रहा है। यह कानून, व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला करता है और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है।"
अधिनियम की धारा 2 (ए) में यह कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उसके "प्रलोभन" की पेशकश करके उसे परिवर्तित करना एक आपराधिक अपराध है। इसे अधिनियम में परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार धर्म परिवर्तन के लिए किसी भी प्रलोभन की पेशकश करना जैसे- (i) कोई भी उपहार, संतुष्टि, पैसा या सामग्री या तो नकद या अन्य तरह से लाभ देना। (ii) रोजगार, किसी भी धार्मिक संस्था द्वारा संचालित प्रतिष्ठित स्कूल में मुफ्त शिक्षा या (iii) बेहतर जीवन शैली, दिव्य नाराजगी या कुछ अन्य इत्यादि अपराध के श्रेणी में डाले गए हैं।
आगे दलील में कहा गया कि,
"अधिनियम के संदर्भ में "प्रलोभन" की परिभाषा बहुत व्यापक है। इसका मतलब है कि किसी मुस्लिम व्यक्ति द्वारा अगर किसी गैर-मुस्लिम को उपहार के रूप में इस्लाम धर्म से संबंधित किताब दी जाती है। इसके बाद वह यानी गैर-मुस्लिम, इस्लाम की शिक्षाओं से अवगत होता है और धर्म बदलने का फैसला करता है. इस कानून के तहत इसे भी प्रलोभन की श्रेणी में डाल दिया गया है, जो कि गलत है।"
आगे कहा गया कि,
"यह अध्यादेश जबरन धर्म परिवर्तन की कुप्रथा को दूर करने का प्रयास करता है। इसके साथ ही इस कानून के मुताबिक किसी व्यक्ति के पुन: धर्म परिवर्तन यानी अपने पहले के धर्म में वापसी को गैर-कानूनी नहीं माना जाएगा, भले ही यह धोखाधड़ी, बल, खरीद, लुभाकर या अन्य तरीके से किए गया हो।"
इसके अलावा, यह भी कहा गया कि आपराधिक कानून में जिस तरह से सबूत की जरूरत होती है, यह अध्यादेश उसके उलट है।
जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने दलील देते हुए कहा कि,
" कई बार अंतरजातीय विवाह के मामलों में, एक व्यक्ति अपने पति या पत्नी के विश्वास पर धर्मान्तरित होता है। हमारे राष्ट्र में, अंतरजातीय जोड़े अक्सर समुदाय से बहिष्कृत होने का खामियाजा भुगतते हैं, इतना कि परिवार अपराध में खुद लिप्त हो जाता है, जिसे 'ऑनर किलिंग' कहा जाता है। बहुत सारे मामले हैं देश में, जिसमें उनके अपने ही परिजनों के द्वारा हत्या हो गई, जिन्होंने अपने धर्म के बाहर शादी करने की हिम्मत की है। यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन करने वाले परिवार के लोग इस तरह के धर्मांतरण पर आपत्ति करते हैं।
न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस का जिक्र करते हुए दलील दी गई कि,
"अधिनियम की धारा 8 के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति धर्मांतरण करना चाहता है, उसे कम-से-कम 60 दिन पहले नोटिस देना होगा और रूपांतरण समारोह करने वाले व्यक्ति को एक महीने की अग्रिम सूचना देनी होगी। यह न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य ऐसे मामले में कहा गया है कि निजता का अधिकार लोगों का मौलिक अधिकार है। लोगों की निजता की रक्षा होनी जरूरी है। इसलिए ऐसे कानूनों को रद्द कर देना चाहिए जो लोगों के निजता के अधिकार का उल्लंघन करता हो."
इस तरह का प्रावधान न केवल निजता के अधिकार पर हमला करता है, बल्कि उन व्यक्तियों की सुरक्षा को भी खतरे में डालता है, जिनका परिवार धर्मांतरण का विरोध करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड द्वारा 'लव जिहाद 'के नाम पर विवाह के लिए किए गए धार्मिक धर्मांतरण कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर नोटिस जारी किया।
हालांकि, पीठ ने कानूनों के उन प्रावधानों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है, जिसमें विवाह के लिए धार्मिक रूपांतरण की पूर्व अनुमति की आवश्यकता है।
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