अब जेल, नियम और जमानत अपवाद हो गई है; और पत्रकारों को आलेख छापने से पहले कानूनी राय लेनी पड़ती है: सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन [वीडियो]

LiveLaw News Network

20 Feb 2021 9:54 AM IST

  • अब जेल, नियम और जमानत अपवाद हो गई है; और पत्रकारों को आलेख छापने से पहले कानूनी राय लेनी पड़ती है: सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन [वीडियो]

    वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने शुक्रवार को कहा, "रिमांड सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक कार्य है। मजिस्ट्रेटों को इस कार्य का निर्वहन यांत्रिक तरीक से नहीं करना चाहिए, बल्‍कि दीमाग का इस्तेमाल होना चाहिए।"

    रेबेका जॉन ने 'द राइट टू डिसेंट' विषय पर लाइव लॉ की ओर से आयोजित एक वेबिनार में ये बात कही। कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस दीपक गुप्ता भी पैनलिस्ट थे। रेबेका जॉन ने टूलकिट मामले में कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी और पुलिस हिरासत में उनकी रिमांड का उदाहरण दिया और मामले में हुई प्रक्रियात्मक चूक की भी चर्चा की।

    उन्होंने कहा, "सीआरपीसी में संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराध, जमानती और गैर-जमानती अपराध हैं। इस युवती पर संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध का आरोप लगाया गया था। इसलिए उसकी गिरफ्तारी के लिए किसी वारंट की आवश्यकता नहीं थी। उसे पिछले शनिवार को बैंगलोर से उठाया गया और दिल्ली लाया गया। 24 घंटे के भीतर, उसे सीआरपीसी की धारा 57 के अनुसार एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। हालांकि, उक्त धारा 57 का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है, लेकिन मैंने कई मंचों पर कहा है कि पुलिस को ट्रांजिट रिमांड लेना चाहिए था।

    दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस एस मुरलीधर और तलवंत सिंह की डिवीजन बेंच का एक निर्णय है, जिसमें कहा गया है कि जब पुलिस किसी व्यक्ति को अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर से गिरफ्तार कर रही है तो अभियुक्त को, राज्य से बाहर ले जाने से पहले, अपने वकील से परामर्श करने का अवसर दिया जाना चाहिए। साथ ही उसे निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना चाहिए, जो ट्रांजिट रिमांड लेने का अधिकार क्षेत्र है। ऐसे मजिस्ट्रेट को भी इस तरह के रिमांड देने से पहले अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए और उसे यंत्रवत अनुमति नहीं देनी चाहिए ...।"

    दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिसे एक राज्य की पुलिस को तब पालन करना चाहिए, जब वे किसी अन्य राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में एक शिकायत की जांच करते हुए या एक संज्ञेय अपराध के तहत जाते हैं।

    जस्टिस मुरलीधर और जस्ट‌िस तलवंत सिंह की खंडपीठ ने दिल्ली पुलिस को ज‌स्ट‌िस एसपी गर्ग की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा दी गई सिफारिशों को लागू करने के लिए कहा है, जो वर्तमान मामले में शामिल मुद्दों पर गौर करने के लिए अदालत द्वारा गठित की गई थी।

    रेबेका जॉन ने आगे कहा कि रवि को सोमवार को दिल्ली में पेश किया गया था, और उसे अपने मामले की पैरवी खुद करनी थी। मामले की सुनवाई के दौरान केवल एक कानूनी सहायता वकील मौजूदा था, जिसके पास जाहिर तौर पर एफआईआर की एक प्रति भी नहीं थी। इसके बाद, उन्हें 5 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया गया।

    उन्होंने कहा, "मुझे बताया गया है कि रवि के पास पसंद का वकील था क्योंकि पुलिस ने उसे बताया था कि वह कब गिरफ्तार होने जा रही है। मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए जाने पर उस वकील क्यों नहीं बुलाया गया?"

    जॉन ने कहा, "रिमांड सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक कार्य है! रिमांड के कार्य को इतनी लापरवाही से क्यों किया जाता है? व्यक्तिगत स्वतंत्रता स्वाभाविक रूप से प्रक्रियात्मक कानून से जुड़ी हुई होती है और यदि कानून का पालन नहीं किया जाता है तो इससे किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का पूर्ण उल्लंघन होता है। ..मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह यह निर्धारित करने के लिए कि आगे की रिमांड की जरूरत है या नहीं, एफआईआर, केस डायरी, जांच की प्रकृति पर ध्यान दें।"

    रेबेका जॉन ने एक उदाहरण दिया कि एक मामले में जब मजिस्ट्रेट को यह समझ में आया कि सभी आरोप जमानत योग्य हैं, आरोपी को 8 दिन हिरासत में बीताने पड़े।

    उन्होंने बताया, "हाल ही में, कुछ मुवक्किलों ने मुझसे दूसरी या तीसरी रिमांड के सबंध में मुलाकात की। पहले 15 दिन समाप्त नहीं हुए थे। मैंने देखा कि मामले में सभी अपराध जमानती थे। यह दिल्ली के दंगों के मामले के संबंध में था। मैंने यह भी देखा कि पिछले रिमांड एप्‍लिकेशन के बाद कोई और अपराध नहीं जोड़ा गया था। मामले में आरोपी की आठ दिन की हिरासत के बाद मजिस्ट्रेट को महसूस हुआ कि सभी अपराध जमानती हैं, और आखिरकार उन्हें रिहा किया गया! यह दीमाग के इस्तेमाल की कमी को दर्शाता है!"

    जॉन ने कहा कि "सीआरपीसी की संरचना ऐसी है कि जांच 24 घंटे में पूरी की जानी है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो पुलिस को आरोपी को निकटतम मजिस्ट्रेट के पास ले जाना आवश्यक है। हिरासत को एक बार में 15 दिनों के लिए बढ़ाया जा सकता है। इसे अधिकतम 60 दिनों या 90 दिनों के लिए बढ़ाया जा सकता है। यह अपराध की प्रकृति और मामले की गंभीरता पर निर्भर करता है। 60/90 दिनों के बाद, व्यक्ति वैधानिक जमानत पर रिहा होने का हकदार है यदि पुलिस ने जांच पूरी नहीं की है तो भी।"

    असंतोष को दबाना

    रेबेका जॉन ने जोर दिया कि कैसे यूएपीए का इस्तेमाल उन व्यक्तियों के को जेल में बंद करने के लिए किया जा रहा है, जिनसे राज्य डील नहीं कर पा रहा है, जिसमें शिक्षाविद, छात्र, पब्‍ल‌िक पॉलिसी एक्सपर्ट आदि शामिल हैं।

    उन्होंने कहा कि अब यह समान्य बात हो गई है कि पत्रकारों को आलेख प्रकाशित करने से कानूनी राय लेनी पड़ती है। यहां तक कि वरिष्ठ पत्रकारों को ट्वीट करने से पहले ऐसा करना पड़ता है। रेबेका जॉन ने स्कॉटिश स्वतंत्रता आंदोलन का उदाहरण दिया, जिसे जनमत संग्रह द्वारा तय किया गया था। उन्होंने कहा, "पूरे देश जनमत संग्रह में भाग लिया और यह तय किया गया कि स्कॉटलैंड यूके के साथ रहेगा।"

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