'न्यायपालिका की स्वतंत्रता सिर्फ एक सिद्धांत नहीं बल्कि एक नैतिक अनिवार्यता': जस्टिस हिमा कोहली
Avanish Pathak
6 March 2023 9:19 PM IST
सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस हिमा कोहली हाल ही में कहा, “न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल एक सिद्धांत नहीं बल्कि नैतिक अनिवार्यता है। एक स्वतंत्र न्यायपालिका की प्रासंगिकता को, विशेष रूप से भारत जैसे देश में, जो न केवल 'लोकतांत्रिक गणराज्य' है, बल्कि संविधान में उसे 'संप्रभु, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य' के रूप में वर्णित किया गया है, अतिरंजित नहीं किया जा सकता है।"
जस्टिस हिमा कोहली ने फिक्की की ओर से आयोजित एक सिंपोजियम में उक्त टिप्पणी की, जिसका विषय था-'स्वतंत्र न्यायपालिका: जीवंत लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण'। आयोजन में भारत चैंबर ऑफ कॉमर्स और भारतीय मध्यस्थता परिषद ने भी सहयोग किया था।
संविधान के सचेत रक्षक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका की चर्चा करते हुए और इस बात पर जोर देते हुए कि इसकी स्वतंत्रता एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के सुचारु शासन के लिए महत्वपूर्ण है, जस्टिस कोहली ने वर्षों में, विभिन्न परिस्थितियों के बीच 'स्वतंत्र' न्यायपालिका के विकास को रेखांकित किया।
उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, और इसके घटकों के बीच संघर्ष पैदा हुआ, संघर्ष के समाधान के लिए एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और सक्षम निकाय की आवश्यकता थी, जो शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को सक्षम करे, आवश्यक पाया गया।
जस्टिस कोहली ने यह भी कहा कि स्वतंत्र न्यायपालिका के दो पहलू हैं, 'संस्थागत स्वतंत्रता', जिसका आशय न्यायिक संस्था का सामूहिक या इकाई के रूप में स्वतंत्र होना है और 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता', जिसका आशय मामलों में निर्णय लेने में जजों की स्वतंत्रता से है।
उन्होंने कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता न केवल नागरिकों के मौलिक अधिकारों का एक पहलू है, और न ही केवल इसकी संवैधानिक स्थिति या वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता तक सीमित है, बल्कि एक जीवंत लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक शर्त है। उन्होंने देखा कि एक स्वतंत्र न्यायपालिका भी एक व्यक्तिगत न्यायाधीश की सत्यनिष्ठा और निष्पक्षता पर निर्भर करती है।
एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976) में जस्टिस एचआर खन्ना की असहमति का उदाहरण देते हुए, जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले के रूप में जाना जाता है, जस्टिस कोहली ने बताया कि यह कैसे न्यायिक स्वतंत्रता और अखंडता के 'चमकदार उदाहरण' के रूप में सामने आया।
जस्टिस कोहली ने इस प्रकार बताया कि कैसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल एक कानूनी सिद्धांत नहीं बल्कि एक जीवंत लोकतंत्र का एक मूलभूत स्तंभ है।
समापन से पहले, उन्होंने याद दिलाया कि लोकतांत्रिक प्रणाली को मजबूत करने के लिए राज्य के सभी तीन स्तंभों के लिए समानांतर में काम करना जरूरी है न कि एक साथ काम करना।