कोलकाता हाईकोर्ट का आदेश, घरेलू पूछताछ में साक्ष्य के सख्त नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं

LiveLaw News Network

11 Dec 2019 11:19 AM GMT

  • कोलकाता हाईकोर्ट का आदेश, घरेलू पूछताछ में साक्ष्य के सख्त नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं

    कोलकाता उच्‍च न्यायालय के न्यायाधीश अमृता सिन्हा ने एक रिट याचिका को खारिज करते हुए कहा है कि यह स्‍थ‌ायी कानून है कि घरेलू पूछताछ में साक्ष्य के सख्त नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। आरोपों का निर्धारण संभावनाओं के प्रधानता पर आध‌ा‌रित होता है। अदालत ने कहा, जब तक आरोपों के समर्थन में कुछ सबूत हैं, अनुशासनात्मक प्राधिकारी उसी के आधार पर कार्य कर सकते हैं।

    मामले में याचिकाकर्ता कलकत्ता राज्य परिवहन निगम (सीएसटीसी) में कार्यरत एक बस कंडक्टर है। जिस बस में याचिकाकर्ता की ड्यूटी था, जांच दल ने उसकी जांच की थी। कंडक्टर कैश बैग की जांच में टिकटों की बिक्री से 398 रुपए अधिक पाए गए थे। याचिकाकर्ता अपने बैग में नकदी की उक्त अतिरिक्त राशि का हिसाब नहीं दे सका।

    डिपो मैनेजर ने बाद में उसके निलंबन का आदेश जारी कर दिया। याचिकाकर्ता को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया और उसे अपना पहचान पत्र कार्यालय में जमा करने का निर्देश दिया गया। याचिकाकर्ता के खिलाफ एक आरोप पत्र जारी किया गया और उसे लिखित बयान में खुद पर लगे आरोपों को स्वीकार करने या इनकार करने के लिए कहा गया। याचिकाकर्ता ने उक्त आरोप पत्र का जवाब देते हुए कहा कि उस पर लगाए गए आरोप झूठे हैं, हालांकि उसने स्वीकार किया कि जांच दल ने उसके दस्ते से 400 रुपए बरामद किया था, लेकिन ये उसने दवाइयां खरीदने के लिए रखा था।

    CSTC के वरिष्ठ अनुशासन अधिकारी ने याचिकाकर्ता को सूचित किया कि अनुशासनात्मक बैठकों के लिए अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने CSTC के एक अनुशासन अधिकारी को जांच अधिकारी और केंद्रीय अनुशासन अनुभाग के मुख्य लिपिक को प्रेजेंटिंग ऑफिसर के रूप में नियुक्त किया है। अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू होने से क्षुब्ध होकर याचिकाकर्ता ने इस आधार पर तत्काल रिट याचिका दायर की कि याचिकाकर्ता को दी गई चार्जशीट दोषपूर्ण और अस्पष्ट है। याचिकाकर्ता ने निलंबन आदेश और चार्जशीट को रद्द करने की अपील की।

    हालांकि याचिकाकर्ता ने लंबित रिट याचिका में अपने अधिकारों और विरोधों के आग्रह के बिना अनुशासनात्मक कार्यवाही में भाग लिया। रिट याचिका लंबित रहते हुए ही उसके खिलाफ सजा का अंतिम आदेश पारित किया गया। याचिकाकर्ता ने तब एक इंटरलोक्युटरी अर्जी दाखिल की, जिसमें बाद के तथ्यों और दस्तावेजों को रिकॉर्ड में शामिल किया गया।

    इसके बाद, डिप्टी मैनेजिंग डाइरेक्टर (CSTC) ने याचिकाकर्ता के खिलाफ सजा का आदेश जारी किया कि याचिकाकर्ता का वेतन घटाकर संचयी प्रभाव के साथ कंडक्टर के प्रारंभिक चरण के वेतनमान के बराबर कर दिया जाए। और याचिकाकर्ता को चेतावनी भी दी गई थी कि भविष्य में इस तरह के अपराध की पुनरावृत्ति होने पर वो सेवा समाप्ति सहित गंभीर अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए खुद उत्तरदायी होगा।

    याचिकाकर्ता खुद पर जुर्माना लगाने और दोषपूर्ण चार्जशीट के आधार पर शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही से से क्षुब्‍ध था। याचिकाकर्ता ने बताया कि निलंबन आदेश और उसके खिलाफ जारी आरोप पत्र के बीच भयावह विसंगतियां हैं। उन्होंने आगे कहा कि चेकिंग दस्ते में एक सदस्य शामिल था, जो CSTC का कर्मचारी नहीं था और बाहरी व्यक्ति चेकिंग दस्ते में शामिल होने के लिए अधिकृत नहीं है। याचिकाकर्ता ने प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन का आरोप लगाया। याचिकाकर्ता ने आगे आरोप लगाया कि एक अधिकारी ने पूर्व लिखित दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए उसे बाध्य करके पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया। और यह भी आरोप लगाया कि वह प्रबंधन के गवाहों के साक्ष्य दर्ज करने के समय उपस्थित नहीं थे और तदनुसार ये प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण है और उसने सजा के रूप में हुई अनुशासनात्मक कार्यवाही को खत्म करने की प्रार्थना की।

    उत्तरदाताओं ने यह कहते हुए याचिकाकर्ता की प्रार्थना का मुखर विरोध किया कि एक वैकल्पिक मंच की उपलब्धता के मद्देनजर रिट याचिका कायम नहीं होती और न्यायालय द्वारा तत्काल रिट याचिका पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। उत्तरदाता ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने अपनी चार्जशीट में स्वीकार किया है कि टिकटों की बिक्री से अधिक धन उसके पास था, ये अपराध की स्वीकार्यता का स्पष्ट मामला है। प्रतिवादी ने यह भी आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता निरंतर अपराधी है क्योंकि उस पर पहले भी ऐसे अपराधों का आरोप लग चुका है और यह भी कहा कि जांच दल में CSTC के कर्मचारी ही शामिल थे, कोई भी बाहरी व्यक्ति दस्ते का हिस्सा नहीं था।

    प्रतिवादी ने यह कहते हुए रिट याचिका को खारिज करने की प्रार्थना की कि याचिकाकर्ता ने अपराध स्वीकार किया है कि उसने जानबूझकर गवाहों से क्रॉस एग्‍जामिनेशन के मौके का इस्तेमाल नहीं किया।

    अदालत ने कहा कि जहां तक आरोपों के समर्थन में कुछ सबूत हैं, अनुशासनात्मक प्राधिकरण उसी के आधार पर कार्रवाई कर सकता है। अदालत ने आगे कहा, इस मामले में, याचिकाकर्ता के खिलाफ ठोससबूत हैं और यह भी कि अनुशासनात्मक कार्यवाही करने में कोई स्पष्ट अवैधता नहीं दिखाई देती है और यह भी कि याचिकाकर्ता पर लगाए गए दंड से कोर्ट को आश्चर्य नहीं है और अदालत मामले में किसी भी हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं है। अदालत कहा कि याचिकाकर्ता प्रतिवादियों के आचरण में दुर्भावना या पूर्वाग्रह स्थापित करने में विफल रहा। याचिकाकर्ता यह साबित करने में बुरी तरह विफल रहा कि उसे प्रतिवादियों के किसी आचरण के कारण नुकसान उठाना पड़ा।

    रिट याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने प्रतिवादी की उस दलील का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि वैकल्पिक उपाय की उपलब्धत की स्थिति में रिट याचिका कायम नहीं हो सकती है। कोर्ट ने कहाः

    "माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ध्यान में रखते हुए कि वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता रिट याचिका को स्वीकार करने में पूरी तरह रोक नहीं लगाती, जिसमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के उल्लंघन का आरोप लगाया गया हो और जब याचिकाकर्ता का मुख्य आरोप था कि प्रतिवादी की कार्रवाई उक्त सिद्धांत के विपरीत थी, तब न्यायालय याचिका को सुनवाई योग्य समझती है। लेकिन सभी पक्षों को सुनने और रिकॉर्ड की छानबीन पर ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता को अपने बचाव के लिए पर्याप्त अवसर दिया गया था, जिसमें वो विफल रहा। यहां पर उक्त सिद्धांत के उल्लंघन का शायद ही कोई उदाहरण है। इसके विपरीत, याचिकाकर्ता निराधार दावों को उठाकर एक मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहा है। जैसा कि न्यायालय पहले ही राय बना चुकी है कि याचिकाकर्ता का मुख्य आरोप तर्कसंगत नहीं हैं।"


    इस प्रकार, अदालत ने प्र‌तिवादी की वैकल्पिक उपाय की उपलब्धता के आधार पर रिट याचिका को खारिज करने की दलील रद्द कर दी।

    मामले का विवरण:

    शीर्षक: मानिकलाल दास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य।

    केस नंबर: डब्ल्यूपी 2019 का नंबर 77

    कोरम: जस्टिस अमृता सिन्हा

    प्र‌तिनिधित्व: एडवोकेट देवदत्त बसु (याचिकाकर्ता के लिए);

    वरिष्ठ एडवोकेट अमल कर और एडवोकेट सब्यसाची मोंडल (सीएसटीसी के लिए);

    वरिष्ठ सरकारी एडवोकेट चैताली भट्टाचार्य और एडवोकेट सुवेंदु रॉयचौधरी (राज्य के लिए)

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