परिवीक्षाधीन जज के निष्कासन का सामान्य आदेश जारी करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक नहींः बॉम्‍बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

4 Feb 2020 9:53 AM IST

  • परिवीक्षाधीन जज के निष्कासन का सामान्य आदेश जारी करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक नहींः बॉम्‍बे हाईकोर्ट

    एक महत्वपूर्ण फैसले में, बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि परिवीक्षाधीन जज के निष्कासन का आदेश सरलीकृत निष्कासन है। ऐसे निष्कासन आदेश जारी करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना या किसी भी प्रकार की जांच कराना आवश्यक नहीं है।

    ज‌स्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस एनबी सूर्यवंशी की खंडपीठ ने अजय दिनोद द्वारा दायर की गई रिट याचिका को खारिज कर दिया। अजय दिनोद को 2014 में अकोला में जिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था और बाद में 2015 में उन्हें अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश का अधिकार दिया गया था।

    जुलाई 2016 में, बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें नेशनल स्पॉट एक्सचेंज लिमिटेड घोटाले से जुड़े मामलों के त्वरित और शीघ्र ट्रायल के लिए विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की सिफारिश की। हालांकि, याचिकाकर्ता को जून 2017 में सेवा से हटा दिया गया। इसलिए मौजूदा याचिका दायर की गई।

    केस की पृष्ठभूमि

    भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 16, 21, 309, 311 (2) और 226 के तहत दायर उक्त याचिका में याचिकाकर्ता ने 23 जून, 2017 को राज्य सरकार द्वारा महाराष्ट्र न्यायिक सेवा नियम 2008 के नियम 13 (4) (ii) (b) और नियम 14 के प्रावधानों के तहत जारी सेवा समाप्‍ति के आदेश की वैधता और औचित्य पर सवाल उठाया है, जो याचिकाकर्ता के अनुसार MJS रूल्स के नियम 7 (b) के अनुसार भविष्य में रोजगार के लिए अयोग्यता पैदा कर रहा है।

    प्रस्तुतियां

    याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एवी अंतुर्कर पेश हुए और रजिस्ट्रार जनरल, हाईकोर्ट की ओर से में वरिष्ठ अधिवक्ता मिलिंद साठे उपस्थित हुए।

    एवी अंतुर्कर ने तर्क दिया कि राज्य सरकार ने यांत्रिक रूप से उच्च न्यायालय की सिफारिशों का पालन किया है। नियुक्ति प्राधिकारी को अपने सूत्रों के माध्यम से याचिकाकर्ता की उपयुक्तता को सत्यापित करना चाहिए था। चूंकि नियम 13 (4) (a) में 'खोज' शब्द का उल्लेख है, जबकि किसी भी जांच के अभाव में कोई 'खोज' नहीं हो सकती है। अंतुर्कर ने कहा, जांच, वह जितनी भी संक्षिप्त क्यों न हो, का आयोजन किया जाना चाहिए था।

    उन्होंने आगे कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता की एसीआर अच्छी थी, इसलिए उन्हें कार्यमुक्त करने का कोई कारण नहीं था। जैसा कि हाईकोर्ट द्वारा दायर हलफनामे से स्पष्‍ट है कि कुछ प्रतिकूल तथ्यों, नैतिकता, ईमानदारी को ध्यान में रखा गया है, अंतुर्कर ने तर्क दिया कि इसलिए उक्त आदेश दोषपूर्ण है,

    और जांच के अभाव में यह कायम नहीं रखा जा सकता है।

    दूसरी ओर, मिलिंद साठे ने दलील दी कि उक्त आदेश एक सरलकृत निष्कासन आदेश है, ‌जिसमें याचिकाकर्ता पर कोई दोष/लांछन नहीं लगाया गया है,इसलिए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। साथ ही, नियुक्ति आदेश की शर्तों के अनुसार, याचिकाकर्ता की नियुक्ति अस्थायी प्रकृति की थी और नियुक्ति आदेश यह कहता है कि बिना किसी कारण के याचिकाकर्ता की सेवाओं को समाप्त किया जा सकता है।

    निर्णय

    दोनों पक्षों की प्रस्तुतियों की जांच के बाद, कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया व अन्‍य बनाम पलक मोदी एंड अन्‍य के मामले का उल्लेख किया, जिसे मिलिंद साठे ने अपनी दलीलों के समर्थन में उद्धृत किया था। उक्त निर्णय में सुप्रीम कोर्ट चन्द्र प्रकाश शाही बनाम यूपी राज्य के मामले में दिए गए निर्णय को उद्घरण दिया था और अनुकरण किया था।

    बेंच ने कहा-

    "‌हमारी राय में, मौजूदा मामले के तथ्यों के मुताबिक, चंद्र प्रकाश शाही (सुप्रा) के मामले में की गई टिप्पणियां यहां पूर्णतया लागू होती हैं, और चूंकि आदेश सरलीकृत निष्कासन का है, इसलिए हम याचिकाकर्ता के दलीलों पर जोर नहीं देते। हम याचिकाकर्ता के इस तर्क को स्वीकार करने में कि आदेश दंडात्मक है, असमर्थ हैं।"

    कोर्ट ने एमजेएस रूल्‍स पर भी ध्यान दिया और आगे कहा-

    "यह अस्वीकार्य है कि याचिकाकर्ता ने MJS नियमों को समझा नहीं, जिसमें स्पष्ट रूप से बताया गया है कि याचिकाकर्ता की नियुक्ति अस्थायी प्रकृति है और उसे बिना कारण बताए समाप्त किया जा सकता है। परिवीक्षा आदेश को स्वीकार करने के बाद याचिकाकर्ता यह दलील नहीं दे सकता कि वह उक्त आदेश के कारण उन्हें अयोग्यता का समाना करना पड़ा है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

    चूंकि याचिकाकर्ता के निष्कासन का आदेश एक परिवीक्षाधीन कर्मी का सरलीकृत निष्कासन है। इसलिए याचिकाकर्ता के निष्कासन का आदेश जारी करने से पहले प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने या किसी भी प्रकार की जांच कराने की आवश्यकता नहीं है।"

    अंत में, कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता की सेवा समाप्‍ति के आदेश को कदाचार या अनुशासनहीनता के आधार पर हटाने के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा-

    "याचिकाकर्ता की उपयुक्तता और प्रदर्शन का रिकॉर्ड देखने के बाद उच्च अधिकारियों से भी रिपोर्ट मंगवाई गई है ओर उन्हें सेवा मुक्त करने का फैसला करने से पहले उन्हें ध्यान से देखा गया। इसलिए उक्त फैसले में कोई दोष नहीं पाया जा सकता है।"

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