'हाईकोर्ट को कितनी बार याद दिलाना पड़ेगा?' : सुप्रीम कोर्ट ने सिविल विवाद में FIR रद्द न करने पर जताई नाराज़गी

Shahadat

18 July 2025 2:48 PM

  • हाईकोर्ट को कितनी बार याद दिलाना पड़ेगा? : सुप्रीम कोर्ट ने सिविल विवाद में FIR रद्द न करने पर जताई नाराज़गी

    सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की इस बात के लिए आलोचना की कि उसने धोखाधड़ी की FIR रद्द करने की याचिका पर सुनवाई करते हुए फिल्म निर्माता को शिकायतकर्ता को 25 लाख रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया, जबकि विवाद सिविल प्रकृति का था।

    जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने कहा कि ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट ने हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम भजन लाल एवं अन्य मामले में आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के सुस्थापित सिद्धांतों को भुला दिया।

    न्यायालय ने टिप्पणी की,

    "हाईकोर्ट द्वारा विवादित आदेश पारित करने के तरीके से हम अत्यंत व्यथित हैं। हाईकोर्ट ने पहले अपीलकर्ता को प्रतिवादी नंबर 4 को 25,00,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया। उसके बाद उसे समझौते के उद्देश्य से मध्यस्थता एवं सुलह केंद्र के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश दिया। संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर रिट याचिका या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत FIR या किसी अन्य आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के लिए दायर विविध आवेदन में हाईकोर्ट से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती है। हाईकोर्ट से अपेक्षा की जाती है कि वह FIR में लगाए गए कथनों और आरोपों के साथ-साथ रिकॉर्ड में मौजूद अन्य सामग्री, यदि कोई हो, पर भी गौर करे।"

    न्यायालय ने कर्मा मीडिया एंड एंटरटेनमेंट एलएलपी के सह-संस्थापक और प्रोडक्शन हेड शैलेश कुमार सिंह उर्फ शैलेश आर. सिंह के खिलाफ दर्ज धोखाधड़ी की FIR रद्द कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट यह जांच करने में विफल रहा कि क्या FIR में किसी आपराधिक अपराध का खुलासा हुआ है। इसके बजाय उसने कार्यवाही को वसूली तंत्र में बदल दिया।

    न्यायालय ने कहा,

    "हाईकोर्ट को कितनी बार यह याद दिलाया जाए कि धोखाधड़ी का अपराध बनने के लिए रिकॉर्ड में प्रथम दृष्टया से ज़्यादा कुछ होना चाहिए, जो यह दर्शाता हो कि अभियुक्त का इरादा शुरू से ही शिकायतकर्ता को धोखा देने का था। FIR को सीधे पढ़ने से आपराधिकता का कोई तत्व प्रकट नहीं होता।"

    न्यायालय ने हाईकोर्ट के 7 मार्च, 2025 के आदेश के खिलाफ सिंह की अपील स्वीकार की और इसे "परेशान करने वाला" उदाहरण बताया कि कैसे अनुच्छेद 226 के तहत रिट अधिकार क्षेत्र का दुरुपयोग आपराधिक कार्यवाही का उपयोग करके शिकायतकर्ता को धन वसूलने में मदद करने के लिए किया गया।

    आगरा के थाना हरिपर्वत में 9 जनवरी, 2025 को दर्ज की गई FIR में भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धारा 60(बी), 316(2) और 318(2) के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया है। शिकायतकर्ता पोलरॉइड मीडिया का प्रमोटर है, जो मीडिया परियोजनाओं के वित्तपोषण में लगी कंपनी है। उसने सिंह पर अपनी कंपनियों के बीच मौखिक व्यावसायिक समझौते के संबंध में धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात का आरोप लगाया।

    हाईकोर्ट में रिट याचिका में सिंह ने FIR रद्द करने की मांग करते हुए कहा कि यह दीवानी वाणिज्यिक विवाद था, जिसे आपराधिक रंग दिया जा रहा था। तर्क दिया कि कोई आपराधिक अपराध नहीं बनता है।

    याचिका पर उसके गुण-दोष के आधार पर निर्णय लेने के बजाय हाईकोर्ट ने सिंह को शिकायतकर्ता को 25 लाख रुपये का भुगतान करने और न्यायालय के मध्यस्थता एवं सुलह केंद्र में उपस्थित होने का निर्देश दिया। आदेश में कहा गया कि यह राशि 8 अप्रैल, 2025 को शिकायतकर्ता को सौंप दी जाएगी और 5,000 रुपये का मध्यस्थता शुल्क भी दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने इस बीच सिंह की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी, लेकिन राहत को उनके अनुपालन पर सशर्त कर दिया।

    सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण की आलोचना की। उसने कहा कि यदि कोई अपराध उजागर नहीं हुआ था तो हाईकोर्ट को या तो FIR रद्द कर देनी चाहिए थी, या यदि अन्यथा पाया गया तो याचिका खारिज कर देनी चाहिए थी और धन की वसूली के लिए दायर किए जाने वाले किसी भी मुकदमे पर विचार करना सिविल कोर्ट या कॉमर्शियल कोर्ट का काम है।

    कोर्ट ने कहा,

    "हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हाईकोर्ट को ऐसा कदम क्यों उठाना चाहिए। हाईकोर्ट या तो यह कहते हुए याचिका स्वीकार कर सकता है कि कोई अपराध उजागर नहीं हुआ है, या यह कहते हुए याचिका खारिज कर सकता है कि रद्द करने का कोई मामला नहीं बनता। हाईकोर्ट को आरोपी द्वारा देय राशि वसूलने में शिकायतकर्ता की मदद करने का प्रयास क्यों करना चाहिए?"

    न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि भले ही सिंह ने मौखिक समझौते के तहत शिकायतकर्ता को पैसे दिए हों, लेकिन केवल यही धोखाधड़ी का अपराध नहीं बनता, जब तक कि शुरू से ही धोखाधड़ी करने का इरादा न हो।

    न्यायालय ने कहा कि शिकायतकर्ता ने वसूली के लिए कोई सिविल मुकदमा दायर नहीं किया है या कोई अन्य कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की है।

    इसमें आगे कहा गया,

    "पक्षकारों के बीच किसी दीवानी विवाद में FIR दर्ज करके और पुलिस की मदद लेकर धन की वसूली नहीं की जा सकती।"

    अदालत ने माना कि FIR आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग थी और उसे रद्द कर दिया। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि शिकायतकर्ता किसी उपयुक्त दीवानी मंच पर वसूली की कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र है।

    Case Title – Shailesh Kumar Singh Alias Shailesh R. Singh v. State of Uttar Pradesh & Ors

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